SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 244
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रस्थानं भाषाटीकासमेतम् । शय्याके उत्क्षेपके अनंतर अंगोंको फैलाये और तकिये लगाये हुये मनुष्य पाणि अर्थात् टकनोंमें मुष्टिकरके ताडन करे और तिसके शरीरको स्नेहसे अभ्यक्त कर पीछे मर्दित करै ॥२८॥ वेदनातमिति स्नेहो नहि शीघं निवर्त्तते ॥ योज्यः शीघ्रं निवृत्तेऽन्यः स्नेहोऽतिष्ठन्नकार्यकृत् ॥२९॥ पीडासे व्याकुल अंग होनेके कारण स्नेह शीघ्र नहीं निवर्तित होताहै और जो शीघ्रतासे स्नेहकी निवृत्ति होजाय तो अन्य स्नेहको योजित करना योग्य है और बिना स्थितहुआ स्नेह कार्यको नहीं करता अर्थात् स्नेहनमें समर्थ नहीं है ॥ २९ ॥ दीप्ताग्निं त्वगतस्नेहं सायाह्ने भोजयेल्लघु ॥ निवृत्तिकालः परमस्त्रयो यामास्ततः परम् ॥३०॥ दीप्त अग्निवाला और स्नेहकी निवृत्तिवाला वह मनुष्य हो तब उसे सायंकालमें हलका भाजन करवावै, स्नेहका निवृत्तिकाल तीन पहरमें होता है तिसके उपरांत ॥ ३० ॥ अहोरात्रमुपक्षेत परतः फलवर्तिभिः॥ तीक्ष्णैर्वा बस्तिभिः कुर्याद्यलं स्नेहनिवृत्तये ॥३१॥ दिन और रात्रिभर देखकर पीछे फलवार्तयोंकरके अथवा तीक्ष्णबस्तियोंकरके स्नेहकी निवृत्तिके अर्थ यत्न करै ॥ ३१॥ अतिरौक्ष्यादनागच्छन्न चेजाड्यादिदोषकृत् ॥ उपेक्षेतैव हि ततोऽध्युषितश्च निशां पिबेत् ॥३२॥ अतिरूखेपनसे नहीं निकलता हुआ स्नेह जाड्यआदिदोषोंको नहीं उपजाताहै तब तिस स्नेहके निकालनेमें यत्नको नहीं करै. पीछे रात्रिमात्र वास करके वह मनुष्य ॥ ३२ ॥ प्रातर्नागरधान्याम्भः कोष्णं केवलमेव वा ॥ अन्वासयेत्तृतीयेऽह्नि पञ्चमे वा पुनश्च तम् ॥३३॥ 'प्रभातमें कछुक गरम किया झूठ और धनियांके पानीको अथवा सूठ और धनियांसे रहित और कछुक गरम पानीको पीवै पीछे तिस आतुर मनुष्यको तीसरे दिन व पांचमें दिन फिर अनुवासित करै ॥ ३३ ॥ यथा वा स्नेहपक्तिः स्यादतोऽत्युल्बणमारुतान् ॥ व्यायामनित्यान्दीप्ताग्नीक्षांश्च प्रतिवासरम् ॥ ३४॥ अथवा जब स्नेहका पाक होजावे तब तिस मनुष्यको अनुवासित करै, इसी कारणसे वायुकी अधिकतावालोंको और नित्यप्रति कसरत करनेवालोंको और दीप्त अग्निवालोंको और रूक्षोंको दिनदिनप्रति अनुवासनबस्तिसे प्रयुक्त करै ॥ ३४ ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy