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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रस्थानं भाषाटीकासमेतम् । अद्भिरम्लविपाकाभिरोषधीभिश्च तादृशम् ॥ पित्तं याति चयं कोपं न तु कालस्य शैत्यतः ॥२६॥ अम्लविपाकवाले जल और औपधियोंकरके वर्षाऋतुमें चय होताहै और तिसवर्षाऋतुमें शीतल पर्नेसे वह पित्त कोपको प्राप्त नहीं होता ॥ २६ ॥ चीयते स्निग्धशीताभिरुदकौषधिभिः कफः॥ तुल्येऽपि काले देहे च स्कन्नत्वान्न प्रकुप्यति ॥ २७ ॥ शिशिरऋतुमें कफके योग्य देहवाले मनुष्यके स्निग्ध और शीतल जल तथा औषधियोंकरके कफका चय होता है परंतु तिस शीतलकालमें स्कन्न धर्मवाला कफ कोपको प्राप्त नहीं होता॥२०॥ इति कालस्वभावोऽयमाहारादिवशात्पुनः॥ चयादीन्यान्ति सद्योऽपि दोषाः कालेऽपि वा न तु ॥२८॥ ऐसे काल यह कालका स्वभाव है फिर आहारआदिके बशसे वे दोष चयआदिको तत्कालभी प्राप्त होजाते है अथवा आहारके वशते योग्यकालमेंभी दोष चयआदिको प्राप्तनहीं होते ॥ २८ ॥ व्याप्नोति सहसा देहमापादतलमस्तकम् ॥ निवर्तते तु कुपितो मलोऽल्पाल्पं जलौघवत् ॥ २९॥ कुपित हुआ मल शीव्रतासे पैरोंके तलोंसे मस्तकपर्यंत शरीरमें व्याप्त होजाता है पीछे अल्प २ होकर निवृत्त होता है जैसे जलका समूह ।। २९ ।। नानारूपैरसंख्येयैर्विकारैः कुपिता मलाः॥ तापयन्ति तनुं तस्मात्तद्धत्वाकृतिसाधनम् ॥ ३०॥ असंख्येयरूप अनेक प्रकारके विकारोंकरके कुपित हुये मल शरीरको तापित करते हैं, इस वास्ते तिन्होंके हेतु और आकृतिका साधन करना योग्य है ।। ३० ॥ शक्यं नैकैकशो वक्तुमतः सामान्यमुच्यते॥ दोषा एव हि सर्वेषां रोगाणामेककारणम् ॥ ३१ ॥ और एक एक दोष कहनेको शक्य नहीं इसकारण सामान्य कर्म करना उचितहै निश्चय सब रोगोंके आदिकारण दोषही कहहैं इनका पृथक् पृथक् वर्णन करनेसे ग्रंथ महान् हो जायगा इससे थोडा कहाहै ॥ ३१ ॥ यथा पक्षी परिपतन् सर्वतः सर्वमप्यहः॥ छायामत्योति नात्मीयां यथा वा कृत्स्नमप्यदः ॥ ३२ ॥ जैसे चारोंतर्फसे संपूर्ण दिनमें भ्रमताहुआ पक्षी अपनी छायाको उल्लंबित नहीं करता है इसी प्रकार विकार तीनदोषोंका उल्लंघन नहीं करते ॥ ३२ ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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