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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अष्टाङ्गहृदयेएभिरेव च निद्राया नाशः श्लेष्मातिसंक्षयात् ॥ निद्रानाशादङ्गमशिरोगौरवजृम्भिकाः ॥ ६३ ॥ इन्होंकरके कफके नाश होनेसे नींदका नाश होजाता है, और नींदके नाशसे अंगमर्द हाडफूटन शिरका भारीपना-जभाई ॥ ६३॥ जाड्यं ग्लानिभ्रमापक्तितन्द्रारोगाश्च वातजाः॥ यथाकालमतो निद्रा रात्रौ सेवेत सात्म्यतः॥ ६४॥ जडपना-ग्लानि-भ्रम-अपक्तिरोग-तंन्द्रा-वातज ये रोग उपजते हैं इसवारते कालके अनुसार प्रकृतिके माफिक नीदको रात्रिमें सेवै ॥ ६४ ॥ असात्म्याज्जागरादर्थं प्रातः स्वप्यादभुक्तवान् ॥ शीलयेन्मन्दनिद्रस्तु क्षीरमद्यरसान् दधि ॥६५॥ प्रकृतिसे रहित जागना होवे तो जितना कालतक जागा हो तिससे आधा कालतक भोजनको नहीं करनेवाला वह मनुष्य प्रभातमें शयन करें, और मंदनींदवाले मनुष्य दूध-मदिरा-रस-दही॥६५॥ अभ्यङ्गोद्वर्तनस्नानमूर्द्धकर्णाक्षितर्पणम् ॥ कान्तावाहुलताश्लेषो निर्वृतिः कृतकृत्यता ॥६६॥ अभ्यंग-उवटना-स्नान और शिर-कान-नेत्र-इन्होंके तर्पणको सेवै, और स्त्रीको लतारूप बाहुओंका मिला और भिति--कृतकृत्यता ॥ ६६ ॥ ___ मनोऽनुकूला विषयाः कामं निद्रासुखप्रदाः॥ ब्रह्मचर्यरतेभ्य सुखनिःस्पृहचेतसः ॥ ६७॥ और मनके अनुकूल विषय ये सब नींद और सुखको देतेहैं ब्रह्मचर्यमें रहनेवाला और ग्राम्यसुख अर्थात् मैथुनमें वांछा रहित चित्तवाला ॥ ६७ ॥ निद्रा सन्तोषतृप्तस्य स्वं कालं नातिवर्तते ॥ ग्राम्यधर्मे त्यजेन्नारीमनुत्तानां रजस्वलाम् ॥ ६८॥ - संतोषसे तृप्त मनुष्योंकी नींद अपने कालको उल्लंघन नहीं करती है मैथुनधर्ममें उत्तानपनेसे रहित-कपडे आई हुई रजस्वला ॥ ६८ ॥ अप्रियामप्रियाचारां दुष्टसङ्कीर्णमेहनाम् ॥ अतिस्थूलकृशां सूतां गर्भिणीमन्ययोषितम् ॥ ६९॥ प्रियपनेसे रहित, और अप्रिय आचारोंवाली, दुष्ट तथा संकर्णि मूत्रमार्गवाली और अतिस्थूल तथा अतिदुबली, सूता अर्थात प्रसूतवाली-गर्भवाली और दूसरेकी भार्या ।। ६९ ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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