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सूत्रस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (७५) नारंगी जंबीरी नींबु सतूत अडीवेर वृक्ष ये सब अम्लदाखकी तरह गुणवाले हैं पका हुआ और सूखा करोंदा अतिपित्तको नहीं करता है ॥ १३६ ॥
दीपनं मेदनं शुष्कमम्लीकाकोलयोः फलम् ॥
तृष्णाश्रमलमच्छेदि लघिष्टं कफवातयोः ॥ १३७॥ सूखी अमली और बेर दीपन है भेदन है और तृषा श्रम ग्लानीको छेदित करता है, और हलका है कफ और वातमें हित है ॥ १३७ ।।
फलानामवरं तत्र लकुचं सर्वदोपकृत् ॥
हिमानिलोष्णदुर्वातव्याललालादिदुषितम् ॥ १३८॥ सब फलोंमें नीचा बढहलका फलहै, वह सब दोपको करताहै. और शीत–वात-गरमी-बुरीबात-सर्पआदिकी लाल आदिकरके दूषित ॥ १३८ ॥
जन्तुजुष्टं जले मग्नमभूमिजमनार्तवम् ॥
अन्यधान्ययुतं हीनवीर्यं जीर्णतयापि च ॥१३९ ॥ और जीवोंकरके संयुक्त, और पानीमें मग्न और योग्य पृथिवीसे नहीं उपजा, और अकालमें उपजा, और दूसरे अन्नसे युत, और हीनवोठवाला अतिपुराना ॥ १३९ ।।
धान्यं त्यजेत्तथा शाकं रूक्षसिद्धमकोमलम् ॥
असञ्जातरसं तद्वच्छुष्कं चान्यत्र मूलकात् ॥ १४०॥ ऐसे अन्नको त्याग और स्नेहकरके रहित पकाया हुआ और कोमलतासे रहित और उपजे हुये रससे रहित और मूली शाकके विना सूखे शाकको त्याग ॥ १४ ॥
प्रायेण बलमप्येवं तथामं विल्ववर्जितम् ॥
विष्यन्दि लवणं सर्वं सूक्ष्मं सृष्टमलं विदुः॥ ११ ॥ और प्रायतासे पूर्वोक्त प्रकारवाले और बेलगिरीसे रहित कचे फलकोभी त्यागै सब नमक कफआदि संघातके विग्रहपनेंको करतेहैं, और सूक्ष्म है, मलको रचते हैं यह वैद्य कहते हैं ॥ १४ ॥
वातघ्नं पाकि तीक्ष्णोष्णं रोचनं कफपित्तकृत् ॥
सैन्धवं तत्र सुस्वादु वृष्यं हृद्यं त्रिदोषनुत् ॥ १४२ ॥ और वातको नाशता है, घाव अन्न आदिको पकाताहै, तीक्ष्णहै, गरम है, रोचन है कफ और पित्तको करताहै, तिन्होंमें सेंधानमक स्वादु है, वीर्यमें हित है, सुंदर है और त्रिदोषको नाशता
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