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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (९५४) अष्टाङ्गहृदयेद्वात्रिंशोऽध्यायः। अथातः क्षुद्ररोगप्रतिषेधमध्यायं व्याख्यास्यामः। इसके अनंतर क्षुद्ररोगप्रतिषेधनामक अध्यायका व्याख्यान करेंगे । विस्रावयेज्जलौकोभिरपक्कामजगल्लिकाम् ॥ नहीं पकीहुई अजगल्लिकाको जोकोंसे विस्त्रावितकरै ।। स्वेदयित्वा यवप्रख्यां विलयाय प्रलेपयेत्॥शादारुकुष्ठमनोहालैः__ और यवप्रख्याको नाशहोनेके अर्थ स्वेदितकर पीछे लेपितकरै ॥ १ ॥ परन्तु देवदार कूठ मन सिल हरतालसे उपचार करै ॥ इत्यापाषाणगर्दभात् ॥ विधिस्तांश्चाचरेत्पक्वान्त्रणवत्साजगल्लिकान् ॥२॥ और नंथिक कछप शालूक पाषाणगर्दभ इन्होंको जोकोंसे तथा पसीना और लेपसे उपाचरितकरै और पकेहुये इन्होंको और अजगल्लिकाको धावकी समान उपचारितकरै ॥ २ ॥ रोधकुस्तम्बरुवचाप्रलेपो मुखदूषिके॥ वटपल्लवयुक्ता वा नारिकेलोत्थशुक्तयः॥३॥ अशान्तौ वमनं नस्यं ललाटे च शिराव्यधः॥ लोध चिरफल वच इन्होंका लेप मुखदूषिक फुनसीमें करै अथवा बटके पत्तोंसे संयुक्तकिये नारयलका रस और सीपीका लेपकरै।।३॥ऐसे नहीं शांति होवे तो वमन तथा मस्तकमें शिरावेध हितहै।। निम्बाम्बुवान्तो निम्बाम्बुसाधितं पद्मकण्टके॥४॥ पिबेत्क्षौद्रान्वितं सर्पिनिम्बारग्वधलेपनम्॥ और पद्मकंटक रोगमें नींबके पानीमें वमन करनेवाला मनुष्य नींबके रसमें साधितकिये ॥ ४ ॥ और शहदसे संयुक्त घृतको पीवै नींव और अमलतासका लेपकरै ।। विवृतादींस्तु जालान्तांश्चिकित्सेदिरिवेल्लिकान् ॥ पित्तवीसर्पवत्तद्वत्प्रत्याख्यायाग्निरोहिणीम् ॥५॥ और विवृतासे लेकर जालिकातक इन्होंको और इरिवेल्लिकाको पित्तके विसर्पकी समान चिकित्सित करै, और अग्नि रोहिणीको अत्यन्त असाध्य जानके चिकित्सितकरै ॥ ५॥ . विलंघनं रक्तविमोक्षणं च विरूक्षणं कायविशोधनं च ॥ धात्रीप्रयोगाञ्छिशिरप्रदेहान्कुर्यात्सदा जालकगर्दभस्य ॥६॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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