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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आराधनास्वरूप। । १९ अवज्ञा होयगी; तथा यो धर्ममें प्रवर्ते हैं, धर्मकी हास्य होयगी; ताते परके दोषकू ढाकै अर अपनी बढाई नही कर " मै केवलज्ञानरूप परमात्मरूप होइ विषयकषाननिमैं फसि रह्या हूं!" ऐसैं आत्मनिंदा कर, अर जैसे सर्वज्ञभगवान् देख्या है तैसें होयगा ऐसैं भवितव्यभावनामैं रत होइ, ताकै उपगृहन अंग होइ है ॥ कोड पुरुष रोगकरि वा उपसर्गकरि वा क्षुधातृषाकी वेदनाकरि या व्रत पालनेमें शिथिलताकरि तथा असहायताकरि तथा निर्धनताकरि मुनिधर्मः वा श्रावकधर्म चलायमान होता होय ताळू धर्मोपदेश देनेकरि तथा शरीरकी टहल चाकरी करि वा औषध भोजनपान देनेकरि वा निराकुल वसतिका वा गृहादिक देनेकरि वा उपद्रबादिक दूरि करनेकरि धर्ममें स्तंभ करै, धर्मः चलवा नही दे, ताकै स्थितीकरण अंग है। बहुरि जो धर्मविर्षे वा धर्मात्मा पुरुषवि वा धर्मायतन कहिये जिनमंदिर जिनप्रतिमाविर्षे वा सत्यार्थधर्मके प्ररूपक जिनेंद्रका आग. -मके पठनविर्षे श्रवणविर्षे उपदेश देनेविर्षे जिनकै अत्यंत प्रीति होय ताकै वात्सल्य अंग होय है ॥ संसारी जीवनिकै अपनी स्त्रीविर्षे वा पुत्रादिककुटुंबवि वा धनपरिग्रहादिकवि तीत्र अनुराग लगि रह्या हैं, धर्ममें धर्मात्मापुरुषनिमैं राग नहीं है, सत्यार्थ स्वपरका निर्णय करि जो परमधर्मक जाणे चतुर्गतिका दुःखसुं भयभीत होय, अर जाकू विषय विवसमान भासै अर आत्मिकमुख जाळू सुख दीखे, ताकै धर्ममें वात्सल्य होय है ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020069
Book TitleAradhana Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Harjivandas
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages61
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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