SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 29
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८] दिगंबर जैन। बहुरी रोगी दरिद्री देखि ग्लानि नहीं करै, तथा आपकै अशुभ कर्मका उदय देखि ग्लानि नही करै तथा पुद्गलनिकी मलिनता देखि ग्लानि नहीं करै, जाते देह तो रोगमय है अर कर्मके उदयकी अनेक परिणति हैं, पुद्गलनिके नाना परिणमन हैं, इनके परिणमन देग्दि रागद्वेषकरि परिणामकू मलीन नहीं करै, ताकै निर्विचिकित्सा अंग होइ ।। बहुरि जो भयतें लज्जारौं लाभते हिंसाके आरंभळू धर्म नही मानै अर जिनेंद्रकी आज्ञामैं लीन हुवा मिथ्यादृष्टि एकांतीनिका चलायमान कीया तत्त्वते नही चलै, सो अमूढदृष्टि नामा अंग है ।। तथा मिथ्यादृष्टीनिका प्ररूप्या एकांतरूप कुमार्ग तथा कुमार्गीनिका आचरण कुमार्गीनिका ज्ञान ध्यान तप त्याग देखि मन-वचन-कायकरि प्रशंसा नही करे। तथा मंत्र यंत्र तंत्र पूजा मंडल होम यज्ञादिककरि तथा व्यंतरादिकदेवनिकी पूजा करी तथा गृहादिकनिकी पूजदिककरि अशुभकर्मका अभाव होना अर साताका उदय होनेका श्रद्धान नही करै । जाते अशुभकर्मका अभाव होना अर शुभकर्मके देने त्रैलोक्यमें कोऊ समर्थ नहीं है। अपने परिणामनिकरि बांध्या हुवा कर्म आपके शुद्ध परिणाम करिही निनरै, और कोऊ दूरि करना समर्थ नहीं है। ऐसा दृढ श्रद्धान सो अमूदृदृष्टि है ।। बहुरि जो परके दोपळू आच्छादन करै-ढाकै अर अपना भला कर्तव्य तिसका प्रकाश नही करै । जाते संसारी जीव रागद्वेषके वशीभूत हैं, अपना आपा भूलि रहे हैं, परमार्थते पराङ्मुख हैं, स्वरूपका अवलोकनरहित हैं, ज्ञानावरणकरि आच्छादित हैं ता” परवश हुवा दोषरूप प्रवते हैं, इनका दोष प्रकट कीये For Private And Personal Use Only
SR No.020069
Book TitleAradhana Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Harjivandas
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages61
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy