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________________ कस्तूरीक २३८६ जाते हैं । यह श्लेष्मकला तथा श्रांगिक शोध को अपनी शक्ति से शमन कर देती है । कभी कभी बढ़े हुये श्लेष्म में, श्वास के श्रावर्त्त में तथा न्युमोनिया के कारण कंठगत श्लेष्मा के अटक जाने पर एक-दो मात्रा थोड़ी देर के पश्चात् देने पर श्रत्यन्त चमत्कार पूर्ण प्रभाव दृष्टिगत होता है । रोगी की अवस्था एक दम बदल जाती है । वह सुख अनुभव करने लगता है । इसी प्रकार जब सन्निपात के रोगी की नाड़ी क्षीण हो रही है, शरीर शीतल पड़ गया है, मस्तिष्क ज्ञानशून्य होने लगता है, उस समय कस्तूरी का आश्चर्यजनक प्रभाव होता है । इसकी एक दो मात्रा से ही वह होश में आने लगता है । कस्तूरी वातजन्य रोगों में, यथा-अधांग, लकवा फालिज़, पक्षाघात श्रादि जिसमें नाड़ी मंडल कार्य रहित हो जाता है— श्रत्यन्त उपयोगी वस्तु उक्त रोग के कारण जो श्रंग शिथिल पड़ जाते हैं, वे इससे पुनः सजीव होने लगते हैं । (१) मदनी । रा०नि० । (२) लोमशविडाल । ध० नि० सुवर्णादि ६ व० । ( ३ ) सहस्रवेधी । ( ४ ) धतूरे का पौधा । धुस्तूर वृक्ष | वै० निघ० । कस्तूरीक - संज्ञा पु ं० [सं० पु ं०] करवीर वृक्ष कर | कस्तूरी काण्डज - संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] मृगनाभि । मुश्क । कस्तूरी गुटिका - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] आयुर्वेद में एक वटी जिसमें कस्तूरी पड़ती है। जैसे, स्वर्ण भस्म १ भा०, कस्तूरी २ भा०, चाँदी भस्म ३ भा०, केसर ४ भा०, छोटी इलायची ५ भा०, जायफल ६ भा० | वंशलोचन ७ भा०, जावित्री ८ भा० लेकर ३-३ दिन तक बकरी के दूध श्रीर पान के स्वरस में घोटकर २-२ रत्ती की गोलियाँ प्रस्तुत करें। गुण तथा सेवन विधि - इसे मलाई के साथ सेवन करने से शुक्रक्षय, शहद से प्रमेह और पान में रखकर खाने से शिथिलता नष्ट होती है । कस्तूरी क्षना-संज्ञा पुं[हिं०] मुश्कदाना । लताकस्तूरी । कस्तूरी भैरव रस क़स्तूरीन - [ यू० ] जुन्दबेदस्तर | कस्तूरा भूषण रस- संज्ञा पुं० [सं० पु० ] उक्र नाम का योग । निर्माण विधि-शुद्ध पारद, अभ्रभस्म, सोहागा भूना, सोंठ, कस्तूरी शुद्ध, पीपर, दन्तीमूल, जया बीज ( भंग बीज ), कपूर और मिर्च इन्हें समान भाग लेकर चूर्ण करें । पुनः अदरख के स्वरस की सात भावना देकर मर्दन करें । गुणतथा उपयोग विधि - इसे अदरख के स्वरस के साथ दो रत्ती प्रमाण खाने से वात, कफ मन्दाग्नि, त्रिदोष जनित घोर कास-श्वास, दयरोग, ऊर्ध्व जत्रुगत रोग, विषम ज्वर, शोध तथा पित्त श्लेष्म की अधिकता नष्ट होती है और यह शुक्र, श्रोज और बल की वृद्धि करता है । (भै०र० ) कस्तूरी भैरव रस (मध्यम) - संज्ञा पुं० [सं० पु० ] उक्त नाम का एक श्रायुर्वेदीय योग । निमाण विधि - मृत वंग भस्म खपरिया शुद्ध, कस्तूरी, स्वर्ण भस्म, चाँदी भस्म इन्हें पृथक् पृथक् समान भाग एक कर्ष लें । कान्त भस्म १ पल, हेमसार ( धत्तूर घन सत्व ), पारद भस्म, लौंग और जायफल प्रत्येक २-२ तो० इन्हें उत्तम प्रकार से चूर्ण करके द्रोणपुष्पी, नागवल्ली दोनों के स्वरस से सात भावना दें । पुन: इस रस में दो तोले कपूर और दो तोले त्रिकुटा का चूर्ण मिलाकर रख 1 मात्रा - १-७ रत्ती । गुण- इसके प्रभाव से वातोल्वण- सन्निपात, महाश्वास, श्लेष्म रोग, त्रिदोषजन्य घोर सन्निपात, विकृत गर्भाशय और शुक्रप्रमेह, विषम ज्वर, कास, श्वास, तय, गुल्म, महा शोथ और राजयक्ष्मा इस तरह नष्ट होता है, जैसे सूर्य अन्धकार को नष्ट करता है । र० सं०, २० सु० । श्र०, ज्वर० चि० । कस्तूरी भैरव रस ( वृहत् ) - संज्ञा पुं० [सं० पु० ] एक प्रकार का आयुर्वेदीय योग । निर्माण विधि-‍ -मृगमद ( कस्तूरी ), शशि (कपूर), सूर्या (ताम्र भस्म ) धातकी ( ध पुष्प) शूक शिम्बी ( कौंच बीज ), रजत ( चाँदी भस्म ), कनक ( सुवर्ण भस्म ), मुक्रा ( मोती ) विद्र ुम (मूंगा), लौह भस्म, हरिताल शुद्ध,
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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