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________________ कस्तूरी २३८८ कस्तूरी वृद्धि करता वाह्याभ्यंतरिक ज्ञानेन्द्रियों को निर्मल एवं विकारशून्य करता और शीघ्रपतन दोष का निवारण करता है। किंतु गीलानी के मतानुसार यह शीघ्र स्खलन दोष उत्पन्न करता है। यह समस्त प्रकार के वत्समाभ विष एवं अन्यान्य स्थावर और जंगम विषों का अगद है। यहाँ तक कि कोई कोई दवाउल् मिस्क को इस काम के लिये इसे तिर्याक (अगद) से बढ़कर मानते हैं। यह पक्षाघात (फ्रालिज) लकवा, कंपवायु,विस्मृत, हृत्स्पंदन (खफ़कान ), उन्माद, बुद्धि विभ्रम, (तवह् हुश) और मगीको लाभकारी है यह अवरोधोद्धाटन करता, सांद्र दोषों को द्रवीभूत करता और वात का अनुलोमन करता है। इसके सूंघने से नज़ला श्राराम होता है। यह सर्दी के सिर दर्द को लाभ पहुँचाता है । इसके नेत्र में लगाने से दृष्टिमांद्य, धुध, जाला और क्लिन्नत! ( दमश्रा) नष्ट हो जाता है। यह नेत्र की (रतूवत) को शुष्क कर देता है । औषधियों की शक्ति को नेत्रपटलों में पहुँचाता है । योनि में इसे धारण करने से गर्भधारण होता है । यदि इसे थूक में घिसकर इन्द्री के ऊपर लेप करें और इसे सूखने के उपरांत स्त्री सहवास करे, तो दम्पतियों को प्रानन्द प्राप्त हो । मुश्क १ मा०, चिड़ा की अस्थि का मजा १ तोला (चिड़ा की अस्थिगत मजा के अभाव में उतनी ही शशा की अस्थिगत मजा ग्रहण करें) इन दोनों को ४ माशे रोगन बनफ्शा के साथ मिलाकर स्त्री की योनि में हमूल करने से गर्भ रह जाता है । मुश्क के द्वारा औषधि वीर्य शरीर के सुदूरवर्ती स्थानों तक पहुँच जाता है। खाने से ही नहीं प्रत्युत इसके सूंघने से भी शीत प्रकृतिवालों के मस्तिष्क को उपकार होता। बूढ़े आदमियों को तथा शीत प्रकृतिवालों को एवं शरद् ऋतु में सेवनीय है । निरंतर चिंताकुल एवं कापुरुषों को इसका सेवन करना चाहिये यह अतिसार नाशक है। कोई-कोई कहते हैं कि यह हृदय को शनिप्रदान करके रेचनौषधों की विरेक शक्ति को निर्बल करता है। किसी किसी के मत से इसे रेचनौषधों में इस कारण सम्मिलित करते हैं कि-यह-संशोधन में पूर्णता लाने का कारण बनता है। रात्रि में सोते समय इसे तकिये के नीचे रखने से रात्रिस्वेद का निवारण होता है। (ख० अ०) नपुंसकता एवं वातनाड़ियों की दुर्बलता में भी आशातीत लाभ होता है। जननेन्द्रिय पर इसका स्थाई प्रभाव पड़ता है। यह कामोद्दीपक है और शीतकाल में इसके सेवन से शीत नहीं प्रतीत होती, पाचनशक्रि बढ़ जाती है और शरीर की प्रत्येक निर्बल शनियाँ इसके सेवन से बलप्राप्त करती है। भोजन के उपरांत यदि वमन हो जाता हो, तो इसके सेवन से बंद हो जाता है। यह उदरीय गौरव, कामला तथा खजू का नाश करती है। इसके सेवन से शरीर में अत्यंत स्फूर्ति उत्पन्न होती है। इससे आधा एवं गर्य की वृद्धि होती है और ज्वर एवं कंप का नाश होता है। इससे दृष्टि को शक्ति प्राप्त होती है। यह व्यंग व झाँई आदि का नाश करती, अवरोधों का उद्घाटन करती स्थौल्य को दूर करती, तथा शुक्रप्रमेह, पूयमेह राजयक्ष्मा, जीर्णकास, दौर्बल्य और नपुंसकता में उपकार करती है। प्राक्षेप एवं शरीर की खिंचावट मिटाने के लिये पान में रखकर कस्तुरी सेवन करना चाहिये । श्वास रोगी को यह बाईक स्वरस के साथ सेवनीय है। मक्खन के साथ कस्तूरी सेवन करने से कुक्कुर खाँसी नष्ट होती है । इसे मालकँगनी के तेल में चटाने से मृगी दूर होती है (ख० अ०) ___ कस्तूरी अत्यन्त उष्ण और रूक्ष तथा प्रवन उत्तेजक है। इसे खाते ही जहाँ यह रक्त में मिलती है, इससे उत्तापजनन होता है और तापमान बढ़ने लगता है, इसलिये हृदय और नाड़ीकी गति तीव्र हो जाती है; धमनियों में प्रसार होता है और नाड़ीमंडल उत्तेजित हो उठता है। जो अवयव निष्क्रिय होने लगते हैं, नाड़िगत उत्तेजना के कारण उनमें पुनः क्रिया होने लगती है और एक बार चैतन्योदय होता है। कभी कभी तो इसका प्रभाव स्थायी होता है । जो अंग कार्य करना बन्द कर देते हैं, इसके सेवन से वे पुनः सजीव होकर अपना कार्य संपादन करने लग
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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