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________________ कर्णतिघर्षक २९४८ कर्णपूर होती है, तब बहरापन होता है। सुश्रुत में जब | कान के छेद में ठहरा हुआ कफ पिघल जाय तो उलटे मार्गों से गमन करती हुई वायु शब्दवाहिनी । बड़ी वेदना होती है। कान पकना । नाड़ियों में प्राप्त होकर वहीं स्थित हो जाती है, ___ सु० उ० २० अ० । मा० नि० । तब उससे मनुष्य को अनेक प्रकार के शब्द सुनाई | कर्णपात्रक-संज्ञा पु० [ सं० पु.] कान का एक पड़ते हैं। इस रोग को उसमें प्रणाद वा कर्णनाद | बाहरी भाग । कान की लौ। लिखा है। सु० उ० २० अ०। यूनानो हकीम इसे, कर्णपालि-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] कान की लौ । ही तनीन वा तनीनुल उजनैन कहते हैं। कान | कर्णपाली । बजना । कानों की झनझनाहट व भनभनाहट । कर्णपाली-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] (१) कान की Tinnitis, Tinnitis aurium. लौ । कान की लोलक । कान को लोबिया । कान नोट-तनीन अोर दवो के अर्थ भेद के लिये की लहर। (Lobul of ear ) कान की दे. “दवी"। लौर । कर्णलतिका । (२) सुश्रुत में एक रोग ___ कणंनाद और कणंवेड़ का अर्थभेद-कर्णनाद जो कान की लोलक में होता है । यह पाँच प्रकार और कणंचवेड़ के अर्थों में यह भेद है कि कर्णनाद का होता है । (१) परिपोट, (२) उत्पात, में अनेक प्रकारके शब्द सुनाई देते हैं,पर कर्णचवेड़ (३) उन्मंथ, (४) दुःखवर्द्धन और (५) में एक ही प्रकार का अर्थात् बाँसुरी का शब्द परिलेही । सु० चि० २१ अ०। विस्तार के लिए सुनाई पड़ता है। इन्हें यथास्थान देखो। कर्णतिघर्षक-संज्ञा पुं० [सं० पु.] कान साफ | कर्णपाली विवर्धन-संज्ञा पु० [सं० क्री०] कर्णपाखी करने का औजार । कर्णशोधनी।। ___ रोग विशेष । कर्ण नेबू-बं०] करना नोबू । कर्णपिप्पली-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] वाग्भट्ट में कर्णपटह-संज्ञा पुं० [सं०] Tym panic me- कान का एक रोग जिसमें कान के छिद्र के भीतर mbrane कान का परदा । प्र. शा०। एक वा एक से अधिक पीपल की तरह कठोर कर्ण पत्रक-संज्ञा पु० [सं० पु.] कर्णपाली । और वेदना रहित माँस के अंकुर पैदा होजाते हैं। वा० उ०१७ श्र०। __ बाहरी कान का हिस्सा । कर्णपुट-संज्ञा पुं॰ [सं०] कान का घेरा । कान का कर्ण पथ-संज्ञा पुं० [सं० पु.] कर्णच्छिद्र । कान का छेद। छेद । कणं कुहर। कर्णपुत्रिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] (1) कर्स कर्णपरिपोटक-संज्ञा पुं॰ [सं० वी० ] एक प्रकार शष्कुली । (२) मोरट लता। का कान में होनेवाला फोड़ा । यह कृष्णारुण और कर्णपुष्प, कीर्णपुष्प-संज्ञा पु० [सं० पु.] (1) अस्तब्ध होता है। यह परिपोटक वात जन्य नोली कटसरैया । नीलकिटी । (२) मोरटखाता । होता है। रा०नि० व.३। कर्णपरिवेहि-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] एक प्रकार | कर्ण पुष्पिका-संज्ञा स्त्री० [सं० मी.] ऊँटकटारा । का कर्णरोग । यह रक और कफ के विकार से | उष्ट्रकाण्डी। के। होती और इधर उधर फैलने वाली होती है। यह | कर्ण -पुष्पी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] क्षीरमोरटा । । कर्णपाली में होती है। क्षीरमुरहरी । पोलुपत्रा । घनमूला । दीर्घमूला । कर्णपाक-संज्ञा पु० [सं० पु. ] कान के छेद का | रा०नि० । नि०शि०। एक रोग जो पित्त के प्रकोप से वा कान में फोड़ा | कर्णपूर-संज्ञा पुं० [सं० पु.] (१) बालग्रह । पकने वा जल भर जाने से होता है। इसमें कान २० मा० । (२) सिरिस का पेड़ । शिरीष वृक्ष । पक जाता है जिससे उसमें सड़ांध और केद (३)नीलकमल । नीलोत्पल ।मे०। (४) अशोक (आर्द्रता) होता है और यदि पित्त के तेज से का पेड़ ।रा०नि०व० १०भा० अश्म० चि०।
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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