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________________ कहोनी .२२६३ आयुर्वेदीय ग्रंथों में इसका पता न होने पर भी, यहाँ की देहाती एवं जंगली जनता इससे भलीभाँति परिचित है, ऐसा प्रतीत होता है। देहाती लोग इसके विविध अंगों का नाना रोगों में सफल प्रयोग करते हैं। उनके प्रयोगों को बड़े परिश्रम के साथ संग्रह करके और उन रोगों में बार-बार उनकी परीक्षा करने के उपरान्त उपयोगी सिद्ध होने पर मैंने उन्हें यहाँ देने का साहस किया है। सेवती वर्ग (N. 0. Compositae.) उत्पत्तिस्थान-लंका और भारत के समस्त | उष्णप्रधान प्रदेश (साधारणतः घरों के समीप) और पश्चिम हिमालय पर ५००० फुट की ऊँचाई तक एवं युक्रप्रांत के चुनार, काशी, इटावा आदि • प्रदेश और यूरोप के जर्मनी और रुस आदि प्रदेश में यह प्रचुरता के साथ उपजती है। रासायनिक संघटन-फल में ३८०६०/ वसा, ५०२०/० भस्म, ३६०६% एल्ब्युमिनाइड्स तथा शर्करा, रात, सैन्द्रियकअम्ल (OxalicAcid) और डेटिसिन (Datiscin) से सम्बन्धित जैन्थोष्ट्रमेरीन (Xantho strumarin) नामक एक ग्ल्युकोसाइड आदि घटक पाये। जाते हैं। औषधार्थ व्यवहार-क्वाथ, चूर्ण, वटी द्रव, प्रभृति । गुणधर्म तथा उपयोग द्रव्यगुण शास्त्र के मुसलमान लेखकों ने हसक' शब्द के अंतर्गत यह लिखा है-"हसक अर्बुद में उपकारी" नेत्रा भिष्यंद निवारक तथा वृक्क एवं मूत्र रोगों में मूत्रल रूप से उपकारी है और शूल रोगों में भी लाभकारी है। इसे कामोद्दीपक भी बतलाया जाता है। __ हिन्दू लोग इसके समग्र चुप को अत्यन्त स्वेदक शांतिदायक और चिरकालानुबंधी विषम ज्वरों में बहुत गुणकारी मानते हैं । प्रायः इसका काढ़ा व्यवहार किया जाता है । (सखाराम अर्जुन) - लारीरो (Loureiro) के कथनानुसार इसके बीज दोषों को तरलीभूत करते और प्रदाह जन्य शोथों को विलीन करते हैं। अमेरिका और । श्राष्ट्रलिया में यह देखा गया है कि यह चरने वाले पशुओं और शूकरादि के लिये घातक सिद्ध हुई है। उक्त औषधि विषया नव्य परिशोधों से यह ज्ञात हुआ है कि, 'जेबोरॅडी' की भाँति यह स्वेदकारक, लाला सावकारी और किंचित् मूत्रकारी है। इसकी सूखी पत्तो की मात्रा ५ रत्ती है। जर्मनी के कुछ भागों में यह प्रायः जूड़ी बुखार (Agne) की औषधि रूप से प्रख्यात है रूस में यह जल-संत्रास रोग प्रतिषेधक मानी जाती है। पंजाब में इसे मसूररिका रोग में (Smellpox )में व्यवहृत करते हैं (Stewart) फा० इं०२ भा०। ___ बेडेन पावेल ( Mr. Baden powell) के कथनानुसार इसकी जद तिक वल्य और कर्कट (Caucer ) एवं गलगंड श्रादि रोगों (Stu mous diseases) में उपकारी है। इसका कटोलाफल शीतल और स्निग्धगुण विशिष्ट स्वीकार किया जाता है तथा इसे मसूरिका रोग में देते हैं। (Stewart) दक्षिण भारत में अर्भावभेदक रोगोपशमनार्थ इसके कँटीले फल को कान में लगाते हैं । अथवा इसके फल के गुच्छे को कान की बाली में लटकाते हैं। __ यह उत्तम मूत्रल और मूत्ररोगों में परमोपकारी है। इससे मूत्राशयगत क्षोभ कम हो जाता है। ___ पुरातन सूजाक (Gleet ) और श्वेतप्रदर में इसका शीतकषाय वा चूर्ण उपकारी होता है। रक्रप्रदर में भी इसका उपयोग किया जाता है । - (वैट) इसके फल किंचित् (Narcotic) होते हैं । (वैट) करोनीके कतिपय ग्रामीण एवं स्वकृत परीक्षित प्रयोग (१) इसकी हरी पत्ती । तो० और कालीमिर्च २-३ दाने मिलाकर जल के साथ पीसकर प्रातःकाल पीने से रनार्श दूर होता है। - (२) इसकी पत्ती अथवा पंचांग लेकर बारीक पीस लें। इसे पकाकर फोड़े पर बाँधने से वे बैठ जाते हैं।
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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