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________________ करेला २२६० करेला रजःस्रावकारी रूप से यह रजःकृच्छ, रजोरोध वा। पर्यन्त सेवन कराते हैं। अर्श में इसकी जड़ का, बिलम्बित रज में सेव्य है । अधिक मात्रा में सेवन कल्क लेप करते हैं । इसको समग्र वेल, दालचीनी करने से यह गर्भस्राव कराती है । कष्टप्रद हस्त- पीपर, चावल ओर तुवरक तैल द्वारा प्रस्तुत अनुपाद शोथ में इसे पानी में पीसकर प्रलेप करते हैं लेपन, चर्मरोग विशेष (Psora), कण्डू, दुष्ट ऊनी शाल वा पश्मीने के वस्त्र प्रभृति के वस्त्र को क्षत (Malignant ulcers) तथा अन्य कीड़ों से सुरक्षित रखने के लिये उसके ऊपर इसके चर्मरोगों में उपकारी सिद्ध होता है । मुखपाक में दाने छिड़क देते हैं। (भा० २ पृ०१७) एक चम्मच भर करेले के फल का रस थोड़ी खड़ी __ डोमक-करेले के फल और पत्ते कृमिघ्न रूप मिट्टी और चीनी मिलाकर दिया जाता है। से व्यवहार किये जाते हैं । कुष्ठ में इनका वहिर कष्टरज (Dysmanohrroea) में प्रात्तंवरजः प्रयोग होता है। पैत्तिक रोगों में वमन और सावकारी रूप से भी यह उपादेय है। सिर की विरेचनार्थ श्राध-पाव करेले को पत्ती का रस सपूय छोटी छोटो फुन्सियों में इसका सिर पर लेप अकेला वा सुगंध द्रव्यों के योग से दिया जाता है करते हैं तथा दग्ध एवं विस्फोटादि में इसका वाह्य पादतल दाह में इसकी पत्ती का रस मर्दन किया प्रयोग करते हैं । कुष्ठ एवं अन्य संक्रमणशील क्षतों जाता है और राज्यन्ध में उसमें कालीमिर्च घिस- (Intractable ulcers) पर इसकी कर अक्षिगुहा के चतुर्दिक पालेप करते हैं। समप्र लता के चूर्ण का अवचूर्णन करते हैं। (फा०६० २ भ. पृ० ७८-६) (ई० मे० मे० पृ० ५५८-६) नादकर्णी-प्रभाव-करेला (फल) बल्य, इसको जड़ सकोचक और रकाश को दूर करने जठराग्नि दीपक (Stomachic ), उत्तेजक, वाली है। पित्तनाशक, मृदुसारक ( Laxative) और ___ गोल्ड कोस्ट में यह संभोग शक्ति वर्द्धक माना रसायन है। फजमजा, पत्रस्वरस और बीज कृमिघ्न जाता है और अधिक मात्रा में सूजाक की बीमारी (in lumbrici) है। एत्र स्तन्यवर्द्धक में लाभकारी ख्याल किया जाता है। . प्रभाव करता है। जड़ संग्राही है। __चोपरा के मतानुसार यह वमनकारक ओर विरेप्रायिक प्रयोग-फल रुचिदायक होता है, चक है। यह सर्पदंशमें भी उपकारी स्वीकार किया अतएव इसकी तरकारी खाई जाती है। वातरक जाता है। (Gout), आमवात एवं यकृत और प्लीहा के कायस और महस्कर के मतानुसार सर्प विष में रोगों में इसका फल उपकारी होता है। यह रक्क यह सर्वथा निरर्थक है। विकारनाशक, मालोखोलिया प्रशमक और विकृत वनज कारवेल्ल (वन करैला) दोष (Giosshumours ) संशोधक माना ( Momordica Balsamina, Linn ) जाता है। शिशुओं को मृदु कोष्ठपरिष्कारक रूप से यह तिक,शीतल, लघु,काष्ठमृदुकर (मुलय्यन) इसकी ताजी पत्तियों का स्वरस व्यवहार्य होता है, पित्तनाशक, रनहर तथा वात कफ नाशक है । यह किन्तु यह निरापद नहीं है । कुष्ठ, अर्श, कामला शरीर की पीतवर्णता, वादी, कामला और प्रमेह प्रभृति में करेले का फल और पत्ती दोनों आभ्यं. (शुक्रमेह) का निवारण करता है। उदर कृमि तरिक रूप से व्यवहार किये जाते हैं। बालकों नाशक है (ता. श०)। यह विषघ्न भी है, इसकी के उलश में करेले की पत्ती का स्वरस प्राधा जड़ अर्श एवं मलावरोध का नाश करती है। इससे तोला थोड़ा हरिद्वा चूर्ण के साथ व्यवहार किया ज्वर छूटता है। दोनों प्रकार के करेलों का उसारा जाता है । यह कै लाकर श्रआमाशय का परिष्कार बालकों के डब्बा को लाभकारी है। यदि इसके करता है। शिशुओं के यकृत रोगों में करेले के पत्तों और फल के उसारे को सुखाकर तीन तीन पत्तों का स्वरस, गोरख इमलीके पत्तों का रस, पके माशे की गोलियाँ प्रस्तुत कर लेवें। फिर गोदुग्ध पान के पत्तों का रस और जामुन की ताजी छाल पान करके ऊपर से एक गोली निगल लेवें। 'का रस एकत्र मिलाकर इसमें बच घिसकर सप्ताह इसके बाद थोड़ा मधु चाट लेवें तो इससे
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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