SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 52
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ एलादि घृत १७८४ एलादिमन्थ विधि चूर्ण कर पुरातन गुड़ के साथ १ मा० | पीपल, पीपलामूल, चव्य, चित्रक, सोंठ, मिर्च, प्रमाण की गोलियाँ बनाएँ। अजवाइन, वृक्षाम्ल (कोकम् ), अमलवेत, अजगुण-यह यकृत और प्लीहारोगनाशक है। मोद, असगंध, कौंचवीज प्रत्येक १-१ कर्ष, स्वच्छ एलादि-घृत-संज्ञा० पुं० [सं० की ] क्षय रोग में चीनी ४ पल लेकर यथाविधि चूर्ण बनाएँ। प्रयुक्त उक्र नाम का योग । यथा-छोटी इलायची, गुण-यह यौवनदाता, रुचिवर्धक, तिल्ली, अजमोद, आंवला, हड़, बहेड़ा, कत्था, नीमसार उदररोग, अर्श, श्वास, शूल और ज्वरनाशक (नीम का गोंद), असनसार (पीले साल का तथा अग्निवर्धक व वल ओर वर्णकारक, वातगोंद), शालसार (राल), बायविडंग, शुद्ध नाशक, नेत्रों को हितकारी, हृद्य एवं कंठ और भिलावाँ, चित्रकमूल, त्रिकुटा, नागरमोथा, सौराष्ट्र- जिह्वा शोधक है। यो० चि०। मृत्तिका (अभाव में फिटकरी), इनको पृथक् पृथक् (४) छोटी इलायची १ भा०, दालचीनी २ ८- पल लेकर (इन सबके परिमाण से) १६ भा०, मिर्च ३ भा०, सोंठ ४ भा०, पीपल ५ भा०, गुना पानी में डाल कर क्वाथ बनाएँ। षोडशांश नागकेशर ६ भा०, मिश्री सर्व तुल्य मिलाकर शेष रहने पर छान लें। पुनः १ प्रस्थ गोवृत यथाविधि चूर्ण बनाएँ। मिलाकर यथाविधि पकाएँ । सिद्ध हो जाने पर गुण—यह यक्ष्मा, अर्श, संग्रहणी, गुल्म, इसमें ३० पल मिश्री और ६ पल वंसलोचन दोनों रक्रपित्त, कंठरोग, अरुचि और प्लीहरोग नाशक है। को चूर्ण कर मिलाले। पुनः घृत से द्विगुण शुद्ध एलादि तैल-संज्ञा पु० [सं० की.] एक प्रकार का शहद मिलाकर रख लें। उक्त नाम का योगगुण-इसे प्रतिदिन १-१ पल की मात्रा में | पाकार्थ-तिल तेल ४ सेर, दही ४ सेर और सेवन करने से यक्ष्मा, शूल, पाण्डु तथा भगंदर दूध ४ सेर । काथनीय द्रव्य-वलामूल ८ सेर । का नाश होता है। काथसाधनार्थ-जल ६४ सेर, अवशिष्ट क्वाथ मात्रा- से १ तो० तक। १६ सेर। कल्कद्रव्य-छोटी इलायची, मुराअनुपान-गोदुग्ध । (च० द० क्षय चि०)। मांसी, सरल काष्ठ, छड़ीला, देवदारु, रेणुका, एलादि चूर्ण-संज्ञा पु' [सं० क्ली. ] (१) छोटो चोरपुष्पी, कचूर, नलद (खस, जटामांसी) इलायची, केशर, तज, जावित्री, तमालपत्र, लवंग, चम्पे का फूल, नागकेशर, प्रन्थिपर्णी, गन्धरस, जायफल, रूमीमस्तगी, अकरकरा, सोंठ, शुद्ध पूति (गंध मार्जार वीर्य), तेजपात, खस, सरलअफीम और पीपर प्रत्येक समान भाग और मिश्री निर्यास (चीढ का गोंद), कुन्दुर (लोहबान), सर्व तुल्य । काष्ठादि श्रोषधियों से अर्द्धभाग उत्तम नख, सुगंधवाला, दालचीनी, कूठ, काली अगर, कस्तूरी लेकर यथाविधि चूर्ण प्रस्तुत करें। नागरमोथा, काकड़ासिंगी, श्रीचंदन (सफेद मात्रा-१-४ मा०। चंदन ), जायफल, मजीठ, केशर, स्पृक्का, तुरुष्क गुण तथा प्रयोग-इसे मधु के साथ सायं- (शिलारस), लघु (अगर ), सब औषधियाँ काल सेवन करने से दो पहर वीर्य का स्तंभन मिलित १ सेर । सब श्रोषधियों के साथ यथाहोता है। यो० चि०। विधि-साधित क्वाथ तथा कल्कादि के साथ यथा(२) सफेद इलायची, पाषाणभेद, शिला. विधि तैल पाक करें। जीत और पीपर-इनका चूर्ण पुराने चावल के गुण-इसके सेवन से विविध प्रकार के वातधोवन के साथ सेवन करने से निकट मृत्युवाला - रोग दूर होते हैं और वल तथा वर्ण की वृद्धि, मूत्रकृच्छ, रोगी जीवित होता है। यो० चि०। होती है । च० द०। (३) छोटी इलायची, नागकेशर, दालचीनी, | एलादिमन्थ-संज्ञा पु० [सं० पु.] यमारोग में तेजपात, तालीशपत्र, वंशलोचन, मुनक्का, अनार . प्रयुक्त उक्त नाम का योग-छोटी इलायची, दाना, धनियाँ, दोनों जीरा प्रत्येक दो-दो कर्ष, आमला, अजमोद, हड़, बहेड़ा, खदिरसार, नीम,
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy