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________________ कराँकुल २२३४ कराँकुल गुण, कमें प्रयोग-इसका मांस अवरोधोद्धाटन करता, शरीर को शत्ति प्रदान करता और कुलंज को नष्ट करता है। इसका भेजा नेत्र में लगाने खे रात्रांध्य रोग आराम होता है। भेजे का लेप श्वित्र और कण्डू पर भी लाभकारी है और शिर के बाल सफेद नहीं होने देता। सिरका और | वनपलाएड के साथ इसकी चर्बी का उपयोग प्लीहा शोथ में लाभकारी है। कुंज के अण्डे में मसूर के दाने के बराघर छिद्र करके उसमें तोले भर पारा भर कर छिद्र को उड़द के आटे से बन्द कर दे। अण्डे के ऊपर भी प्राटा लगा दे और इसे भाग में रख दे । जब पक जाय, उसे निकाल कर ऊपरी आटे को पृथक कर और पारे को निकाल लेवे । तदुपरांत अवशिष्ट अण्डे की सफेदी और जर्दी को खालेवे। इसी प्रकार सप्ताह पर्यंत ऊक पारे को एक अंडे के भीतर तथोक विधि के अनुसार भर-पकाकर नियमानुसार सेवन करते रहें। सप्ताहोपरांत उस पारे की जगह नया पारा लेकर पुनः उसी प्रकार प्रस्तुत कर सेवन करें। इसी भाँति सप्ताह के उपरांत नया पारा बदल बदल कर उन विधि के अनुसार चालीस दिन तक अंडे की जर्दी एवं सफ़ेडी सेवन करें विशेषतः शरद् ऋतु में। इससे अतुलनीय कामशक्ति प्रादुर्भूत होगी। अधिकतया शीतल प्रकृति वालों को इसका उपयोग करना चाहिये । इसके सेवन काल में खट्टी और बादी की चीजें वर्जित हैं। इन्न-ज़हर कहते हैं कि तरो-ताज़ा बाकले को कूट और निचोड़ कर स्वरस निकाले और उसमें उत्तम सिरका मिलायें। फिर इसे मिट्टी की हाँडी में भरकर उसमें इतने बाक़ला के दाने सग्निविष्ट करें कि उक्त द्रव दानों के ऊपर ऊपर रहे ।तत्पश्चात् उक्त हण्डिका को चूल्हे पर चढ़ाकर उसके नीचे मंद अग्नि जलायें, जब सारा द्रव शुष्क हो जाय, तब दानों को निकाल कर छाया में शुष्क करले और उसे कुलंग पक्षी के सामने डाल दें। ज्योंही उसने इसे खाया गति करने से रहित हुआ । .. उसके निवारण का उपाय यह है कि उसके कंठ में नबीज-तमर (अम्लिकारिष्ट) डालें । इब्न जुह्वर | ने निश्चेष्ट करने की दूसरी विधि इस प्रकार लिखी है-कनेर के पत्तों का रस लेकर उसमें तीच सिरका मिलायें। फिर इसे मिट्टी की हाँसी में डालकर उसमें बाकला के दाने भरकर इतना पकायें कि समस्त द्रव शुष्कीभूत हो जाय । पुनः उसे छाया में सुखाकर कुलंग के पास डाला जाय । . जो खायेगा वह गति न कर सकेगा। किंतु नबीज़ तमर (अम्लिकारिष्ट ) पिलाने से वह पुनः स्वास्थ्य लाभ करेगा । "कनेर के पत्तों के साथ लोबिया पकाकर खिलाने से भी कुलंग उड़ने से प्राजिज श्राजाता है, इसका भेजा समभाग सौंफ के साथ लगाने से बहाँके वाल पुनः नहीं उगते इसका पित्ता और भेजा पारे के साथ मिलाकर प्रधमनसऊत करनेसे भूलीहई चीज़ स्मरण श्राजाती है।" ना० अ०। चमेली के तेल में हल किया हुआ इसका पित्ता एक जौ की मात्रा में खाने से विस्मृत रोग में उपकार होता है। और इससे शिर के बाल सफेद नहीं होते। -म० मु०। ___ इसका गोश्त वायुविकार नाशक है । ( -ता. शा० ।) बनपलाण्डु-घटित-सुक्न के साथ इसकी चर्बी का पीना प्लीहा-शोथ-नाशक है। यदि वह - मनुष्य जिसे विस्मृति का रोग हो, चमेली के तेल में कुलङ्ग का पित्त वा उसके शिर का भेजा मिलाकर नास ले, तो उसे कोई बात विस्मरण न हो। इसके भेजे का लेप रान्यंध्य रोग को नष्ट करता है। चुकन्दर के रस में इसका पित्त मिला नास लेने से तीन दिन में लकवा श्राराम होता है। इसका मांस कामोद्दीपक है । इसकी चर्बी कान में टपकाने से वधिरता जाती रहती है। -मु. ना.। कुलङ्ग का मांस अवरोधों का उद्घाटन करता, शरीर को शक्ति प्रदान करता और कोला रोग को दूर करता है । संगदाना मलरुद्धक है। यह सूखा पिसा हुआ चने के पानी के साथ वरिस्तित एवं वृक्कशूल को लाभकारी है। इसका मस्तिष्कभेजा नेत्र में लगाने से रतौंधी का नाश होता है। (न. मु.) इसे मेथी के रस में पीसकर लेप करने से सूजन उतरती है। इसका पित्त चुकन्दर या मर्जजोश के रस में मिला तीन दिन तक नास लेने से लकवे का निश्चय ही नाश होता है। किंतु इसे विपरीत पक्ष के नथुने में झलना उचित
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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