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________________ कमीला २१८१ कमीला एतद्विषयक विविध मत____ कबीला बायविडङ्ग की रज का नाम है" यह कहना भ्रमात्मक है। कबीला के प्रांतरिक मलको वहां के वैद्य बायविडङ्ग की जगह व्यवहार में लाते हैं। क्योंकि इसके गुण प्रायः बायविडङ्ग के ही समान होते हैं । वस्तुतः बायविडङ्ग और कबीले के , वृक्ष एक नहीं अपितु ये सर्वथा दो भिन्न-भिन्न पौधे हैं। इतिहास भारतवर्ष में अति प्राचीन काल से रङ्ग के लिये कंपिल्ल का व्यवहार होता रहा है। हिन्दुस्तान के श्रादिम निवासी संभवतः इसको उसी प्रकार संगृहीत करते थे, जिस प्रकार यह अधुना संग्रह किया जाता है । हिन्दुस्तान में प्रायों के आगमन से पूर्व वे इसको "रुहिन" कहते थे। कंपिल्लक नाम से धन्वन्तरि एवं राजनिघंटु प्रादि प्राचीन निघंटु ग्रन्थ तथा चरक, सुश्रुत, भावप्रकाश और चक्रदत्त प्रभृति चिकित्सा-ग्रन्थों में इसके गुण प्रयोगोंका बारम्बार · उल्लेख हुआ है। भारतियों से अरब देश-वासियों को इसका ज्ञान हुआ और इनके द्वारा यूरोप में इस औषधि का सन्निवेश हुश्रा ओर लगभग ईसवी सन् की सप्तम शताब्दी में पश्चात् कालीन यूनानी चिकित्सकों को इसका ज्ञान हुा । पारव्य चिकित्सक इसको 'वस' या 'घरस' कहते थे और उनको दशम शताब्दी में इसके कृमिघ्न गुण का ज्ञान हुआ । खलीफा हारू-बलू-रशीद के प्रधान चिकित्सक इब्न मासूया इसे अतीव संकोचक तथा उत्कृष्ट कृमिघ्न बतलाते हैं और लिखते हैं कि इसे त्वगीय श्राद्र विस्फोटक (Eruptions) पर लगाने से वे सूख जाते हैं। इसके अतिरिक हकीम राजी, तमीमी, बग़दादी, इब्बसीना तथा अन्य दूसरे हकीमों ने भी इसका उल्लेख किया है। ऐसा प्रतीत होता है कि इनकी प्रकृति के संबन्ध में इनमें से सभी को बहुत सन्देह हुआ है। मजनुल अदबिया नामक प्रसिद्ध पारस्य भाषा के यूनानी निघण्टकार हकीम मुहम्मद हुसेन महाशय को इसको पहिचान में सन्देह है। इन्होंने | इसका वर्णन ठीक नहीं लिखा है । परन्तु | तदुत्तर लीन मुहीत आजम नामक वृहत यूनानी निघण्ट के रचयिता हकीम आजम खाँ साहब ने इसका वर्णन तो ठोक लिखा है परन्तु . उन्होंने उसके बीजों को जो बायविडङ्ग लिखा है वह सर्वथा मिथ्या एव भ्रमकारक है। यूरोप में इसका प्रचार गत आठ वर्षों से हुआ है ऐसा चोपरा का मत है। रासायनिक संगठन कबीला ( Kamala) एक प्रकार का मनोहारी कुछ-कुछ बैंगनी लिये लाल वा इष्टिका रक वर्णीय निर्गन्ध स्वादरहित महीन दानेदार चूर्ण है. जो कबीला के फलों पर से झाड़ लिया जाता है। शीतल जल से यह अविलेय पोर खौलते पानी में केवल अंशतः विलेय है । परन्तु क्षार सुरा. सार एव ईथर में यह पूर्ण स्वच्छन्दतया दिलेय होता है और इससे गम्भीर रक्त वर्णीय विलयन प्राप्त होता है। ___ एक धूसराम रक-वर्णीय राल ( Resin )जो राहलरिन ( Rottlerin) C33 H3009 नामक एक स्फटिकोय पदार्थ से संगठित • होता है, इसका प्रधान उपादान है। यह रक्काम पोत-वर्ण के पत्राकार परत ( Laminar pla tes) के रूप में पाया जाता है, जो ईथर में तत्क्षण विलीन हो जाता है। इसके अतिरिक्त इसमें एक प्राइसो-राट्टलरिन (Iso-rottlerin) नामक अन्य पदार्थ होता है जो संभवतः अशुद्ध रट्टलरिन ( Bottlerin ) ही है। इसमें एक प्रकार का पीत स्फटिकीय द्रव्य, एक पीत और रक वर्ण का राल एवं मोम ( wax) भी पाया जाता है। इसमें उड़नशील तैल, श्वेतक्षार, शर्करा, कषायिन ( Tunnia) चुक्राम्ल (Oxalic acid ) और निंबुकाम्ल (Citric acid) श्रादि द्रव्य चिन्ह मात्र पाये जाते हैं । (भार० एन० चोपरा ) इ० डू० इ० औषधार्थ व्यवहार'कम्पिल्लकः फलरजः।। (सुअत सूत्र ३६ १०) सुतोक्न उक वाक्य से कम्पिलक फल-रज (The glands phairs from Caps.
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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