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________________ कमीला २१८० एरण्डव T ( N. O. Euphorbiaceae ) उत्पत्ति-स्थान- इसका पेड़ एशिया तथा श्राष्ट्रलिया के प्रायः सभी गरम प्रांतों में पाया जाता है । यह हिमालय के किनारे काश्मीर से लेकर नेपाल तक होता है । तथा बंगाल ( पुरी, सिंह भूमि ) ब्रह्मा, उड़ीसा, सिंगापुर, अन्डमान टापु युक्त प्रदेश ( गढ़वाल, कमाऊँ, नेपाल की तराई ) पंजाब (कांगड़ा) मध्यप्रदेश, सिंध से दक्षिण की श्रोर, बम्बई और सिलोन श्रादि प्रांतों में मिलता है । यह वीसोनिया में भी पाया जाता है। वर्णन एक छोटा सदाबहार पेड़ जिसके पत्ते गूलर के पत्तों के समान ३ से 8 इंच लंबे, श्ररुडाकार, नीदार, विवर्त्ती और लाल रङ्ग से भरे हुए होते हैं । पत्रवृन्त के सन्निकट दो अदाकार ग्रंथि होती हैं । वृक्ष मध्यमाकार का २५-३० फुट तक ऊँचा होता है । छाल चौथाई इंच मोटी खाकी रंग की फटी सी और भीतर से लाल दोख पड़ती है । कार्तिक से पूस तक फूल फल श्राते हैं और उष्ण काल में फल पकते हैं। फूल नन्हें २ मकोय के फूल 'के समान भूरापन युक्त लाल रंग के ( वा सफेद एवं पीले ) श्राते हैं । फल त्रिदल प्रकार र-बेर के समान और गुच्छों में लगते हैं । श्रारम्भ में ये हरे रंग के होते हैं। पर बाद को उन पर ललाई लिए चमकदार घनावृत रोम और - सूक्ष्म लाल रंग की ग्रन्थियाँ उत्पन्न होजाती हैं । जो देखने में लाल-लाल धूल सो जमी हुई प्रतीत • होती है । पत्र फल के गात्र पर जो यह रक्त वर्ण का क्षुद्र दानादार पदार्थ संचित होता है इसो लाल रज को कमीला कहते हैं । यह निर्गन्ध श्रोर स्वाद-हीन होता है ? कबीले के भेद और परीक्षा इसके केवल फल पर ही लाल रज नहीं लगी रहती, वरन् इसकी शाखाओंों में भी लाल रेणु लगी रहती है । भारतवर्ष के उत्तर-पश्चिमी प्रांतों, कोंकण, मद्रास एवं मध्यम प्रदेश के वणिक् गण वस्त्र का तरडुल का विनिमय कर पहाड़ी लोगों कमीला से कबीले का संग्रह करते हैं । इन्डो-चीन में प्रचुर परिमाण में इसका संग्रह किया जाता है और वहाँ से यह यूरोप को भेजा जाता है । संग्रहकारक व्यवसायी कबीले के वृक्ष से "कपीला" और "कपीली" इन दो वस्तुओं को प्रथक् २ निकाल लेते हैं। केवल फलों के ऊपर से झाड़कर और श्रालोड़ित कर जो रज निकाली जाती है, उसे "कपीली" कहते हैं । यह लाल रङ्ग की होती है । कपीली नाम का कबीला ही श्रेष्ठ होता है । फल से भिन्न वृक्ष के अन्य भाग-शाखादि से संगृहीत रज कबीले को ' कपीला" कहते हैं, जो पीलापन लिए लाल रंग का होता है । कपोली कपीले की पेक्षा अधिक गुणकारी एवं कपीला कपीली को अपेक्षा न्यून गुणवाली होती । बाजार में जो कबीला मिलता है उसमें प्रचुर मात्रा में धूल और बालू मिला होता है । उक्त कदर्य कबीले का व्यवहार निरापद एवं फलप्रद नहीं होता। कहते हैं कि सम्यक् विशुद्ध कबीले को प्राप्ति दुर्लभ है कारण प्रथम तो वृक्ष स्थित कम्पिल्लक-रज धूलि कणवाही वायु के संस्पर्श से दूषित हो जाती है। और पुनः व्यवसायी लोग भिगोकर उसे और दूषित कर देते हैं । कबीले की परीक्षा जल से भीगी हुई उँगली से कबीले को उठा कर सफेद कागज पर ज़ोर से लकीर खींचने या रगड़ने से यदि वह मसृण वर्त्ती रूप में परिणत होजाय, अथवा उस पर उज्ज्वल पीतवर्ण का निशान होजाय, तो शुद्ध एवं उत्कृष्ट अन्यथा मित्रित, अशुद्ध कबीला समझना चाहिये । बनिये लोग इसी प्रकार कबीले की परीक्षा करते हैं । गन्ज बादावर्द नामक ग्रन्थ में कबीले के शुद्धाशुद्धि होने की पहिचान इस प्रकार लिखी है । शुद्ध हलका होता है और उसकी सुर्खी में पिलाई को झलक होती है और यह स्वाद रहित होता है मिश्रित मिलावट युक्र, गुरु एवं श्रत्यन्त रक्त वर्ण का होता है । इसमें किञ्चिन्मात्र भी पिलाई नहीं होती । इसमें किसी न किसी प्रकार का स्वाद भी होता है।
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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