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________________ कफथः २१३२ 1 कफवृद्धिकारक | जो श्लेना उत्पन्न करे । महर्षि सुत के मत से काकोली, वीर काकोली, जीवक; ऋषभक, मुद्रपर्णी, माषपणीं, मेदा, महामेदा छिन्नरुहा, कर्कटशृङ्गी, तुगादीरी, पद्मक, प्रपोण्डरीक, ऋद्धि, वृद्धि, मृद्विका, जीवन्ती, श्रौर मधुक काकोल्यादिगणोक सकल द्रव्य कफकर हैं । वि० दे० "श्लेष्मा” । कफ़न :- [ फ़ा० ] एक प्रकार का साँप । कफकुञ्जर रस-संत पुं० [सं० पु० ] पारा, गन्धक, सीप का मांस, श्राक और थूहर का दूध । प्रत्येक एक पल, पांचो नमक एक-एक पल, सबको एकत्र छोटे और बड़े शंख में भर फिर पीपल, विष और त्रिफला का चूर्ण कर उस शंख को इसी चूर्ण से बन्द करें। फिर सम्पुट में रख एक पहर की श्रग्नि दें। जब भस्म हो जाय, तब निकाल चूर्ण कर रख 1. मात्रा - 2 रत्ती | गुण- इसके उपयोग से श्वास, खाँसो र हृदय रोग का नाश होता है । ( वृहत् रस० रा०सु० ) । कफ कुठार रस -संज्ञा पुं० [सं० पु ं०] शुद्ध पारद, शुद्ध गंधक, त्रिकुटा, ताम्र भस्म, लोहभस्म समान भाग लें। चूर्णकर दो पहर कटेरी, कुटकी काथ और धतूरा के रस में घोट दो रत्ती प्रमाण गोलियाँ बनाएँ । इसे नागर पान के रस में सेवन करने से कफज्वर का नारा होता है । ( बृहत् रस० रा०सु० ) । कफनी कफकेतु रस-संज्ञा पुं० [सं० पुं०] शंख भस्म, पोंठ, मिर्च, पीपल, भुना सुहागा तुल्य भाग और सबके बराबर विष | बारीक चूर्ण कर अदरख के रस की ३ भावनादें । फिर १ रत्ती प्रमाण गोलियाँ बनाएँ । 1 कफ कुष्ठहर रस - संज्ञा पुं० [सं० पु० ] स्वर्ण भस्म अभ्रक भस्म केसर, (टिकरी, ) गंधक, मीठा तेलिया, त्रिकुटा, नागरमोथा, बायबिडंग और दारचीनी प्रत्येक 1 भाग, चीता ३ भारा। सबका चूर्ण करके तेल में पकाकर रखलें । मात्रा - १ रत्ती । गुण तथा उपयोग विधि -- इसे बकरीके मूत्र के साथ सेवन करने से कफज कुष्ठ का नाश होता है । २० र० स० २० श्र० । गुण तथा प्रयोग — इसे सायं प्रातः दो गोली अदरख के रस के साथ भक्षण करने से कंठ रोग, शिर के रोग, पीनस, कफ समूह श्रौर सन्निपात का नाश होता है । ( वृहत रस रा०सु० ) । कफकोप-भारी, मधुर, श्रत्यन्त शीतल, दही, दूध, नवीन श्रन, जल, तिल के पदार्थ श्रोर ईख के पदार्थ खाने तथा दिनमें सोना, विषमासन, भोजन पर भोजन, एवं खीर, पिष्ट (चून, मैदा, पिट्ठी, ) आदि खाने से कफ कुपित होता है । प्रातः श्रोर वैशाख में इसका अधिक कोप होता है । ( योगत० ) । 2 * फक्षय - संज्ञा पुं० [सं० पु० ] शरीरस्थ स्वाभाविक कफ के नाश का भाव वा क्रिया । कफगड - संज्ञा पुं० [सं० पु० ] गलेका एक रोग । कफज गलगण्ड रोग विशेष । यह स्थिर और गले की त्वचा के समान वर्ण वाला । अल्प पीड़ा युक्त, अत्यंत खाज युक्र, बड़ा और बहुत समय में बढ़ने और पकनेवाला होता है। इसमें पाक-काल में थोड़ी पीड़ा होती है । मुख में मीठापन और कंठ कफलिप सा रहता है । मा० नि० । कफगुल्म- संज्ञा पुं० [सं० पु० ] एक प्रकार का गुल्म रोग जो कफसे उत्पन्न होता है । कफजगुल्म | श्लेष्म गुल्म | इसका रूप - स्तैमित्य, शीतज्वर गान्रसाद, हल्ला कास, अरुचि, गौरव, शैत्य और कठिनत्व है । च० चि० १ श्र० । कफघ्न- वि० [सं० क्रि० ] श्लेष्म नाशक । कफज पीड़ा नाशक । सुश्रुतो - श्रारग्वधादि, वरुणादि, सालसारादि, लोधादि, अर्कादि, सुरसादि, पिप्पल्यादि, एलादि, वृहत्यादि, पटोलादि, ऊषकादि, तथा मुस्तादि गणोक्त और त्रिकटु, त्रिकला, पञ्चमूल एवं दशमूल प्रभृति सकल द्रव्य कफनाशक हैं । वि० दे० " श्लेष्मा " । कफकूर्चिका-संज्ञा स्त्री॰ [सं० स्त्री० ] लाला | | कफघ्नी - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] ( १ ) शुकनासा केवाँच । ( २ ) एक प्रकार का हनुषा | हाऊमेर । लार । थूक । हे० च० ।
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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