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________________ कपास २०१५ कपास इसका आदि उत्पत्ति स्थान है। यह ऐलीबीज मूत्र में धातु जाती हो तो देवकपास के २-३ टापू, अरब और मित्र में भी होती है। पत्ते और थोड़ी मिश्री, नित्य प्रातः सायं चबाकर खावे । देवकपास का पौधा साधारणतः झाड़ीदार अर्श पर देवकपास के पत्तों का रस ३ तो० तक (Arborens), लगभग १२ से १५ फुट (कहीं कहीं ६ से ६ फुट) को ऊँचाई का वड़ा गाय के दूध के साथ सेवन करें। वृक्ष सा होता है, और कई वर्षों तक रहता है। आगंतुक ज्वर पर देवकपास के पत्ते गोदुग्ध के साथ पीसकर, तथा गरमकर, शरीर पर लेप करें। इसके तुद्र भाग लोमश होते हैं और समग्र सुप व्रण रोपणार्थ देवकपास के कोमल पत्ते और रकवर्ण रंजित होता है। पत्ते करपत्राकार पंच पानड़ी के पत्ते बाँटकर बाँधे । वा सप्तखंड युक्त, लोमश, गम्भीर हरे रंग के धब्धे अफीम के विष पर देवकपास के पत्तों का रस से अंकित; खंड गंभीर कटावदार, दीर्घाकार, भाला पिलावे । कार और क्वचित् (Mucronete) होते हैं । कच्चे फल (बोंड़) (Sinus) अधिक कोणी प्रतीक्ष्ण और ग्रंथियां बालक के अतिसार पर देवकपास के बोंड़ को १ से ३ तक होती हैं । (Stipules ) अंडा गोबरी की गरम-गरम राख या भूभल में दबाकर कार; पुष्प एकांतिक, लघुवृन्तयुक्त, रक्तवर्णीय और १५ मिनट बाद निकाल तथा कूट पीसकर स्वरस पंजे ( Claws ) के समीप किंचित् पीत-वर्ण निकाल पिलावे अथवा बालक की माता को उस रंजित होता है । कुण्ड (Calyx) पत्रक हृद- बोंड़ को अपने मुख में चबाकर, उसकी पीक याकार, अंडाकार, धार समान और क्वचित करात बच्चे के मुख में डालना चाहिये । दंतित होता है। ढेढ़ (Capsules) अंडाकार तीन श्रामातिसार पर इसके कच्चे डेढ़ के भीतर या चार तीक्ष्णाग्र, कोषयुक्र, बीज किंचित् हरे रंगके मात्रानुसार अफीम तथा जायफल भर कर पुटपाक रोमों से व्याप्त और उत्तम महीन रेशमवत् श्वेतवर्ण की विधि से पका सेवन करने से बड़ा उपकार को रूई से परिवेष्टित होते हैं। होता है। सखाराम अर्जुन। (इ० मे० मे. इसके पत्ते और बोंड़ सर्वसाधारण कपास के पृ. ४०५, इ.मे. प्लां०) पत्ते और बोंड़ की अपेक्षा बड़े होते हैं । बीज और कामला पर देवकपास के बोंड़ का रस नाक में बिनौला, साधारण कपास के विनौला जैसा किंतु डाले या नस्य लेवे। कुछ बिशेष हरितवर्ण का होता है। प्रायः इसकी काश्त नहीं होती; और न यह बंगाल में इसकी रूई के सूत से यज्ञोपवीत मालूम होता है कि बड़े पैमाने पर यह बोया बनता है । (६० मे० मे० पृ० ४०५) जाता है। जड़ व्रणरोपणार्थ कोंकण में इसकी जड़ को पानड़ी गुण धर्म तथा प्रयोग के पत्तों ( Patchouli leaves) के रस में प्रागुक्त साधारण कपास के गुणधर्म इसमें पाये पीसकर प्रलेप करते हैं । (डी० १ खं०) जाते हैं, इसमें स्निग्धता विशेष होती है। इसके बिच्छू के दंश पर देवकपासको जड़का मनुष्यके पत्ते और जड़ लेप करने के काम में विशेष मूत्र में पीस, दंश-स्थान पर लेप करें, तथा पत्तों पाते हैं। को बाँट कर जहाँ तक दर्द हो वहाँ तक मर्दन करें। ज्वर के पश्चात् त्वचा की रूक्षता या खुजली बनकपास दूर करने के लिये देव कपास के पत्तों के रस में पर्या-अरण्य कार्पासो, वनजा, भारद्वाजी, कालीजीरी ( Vernonia anthelm in वनोद्भवा ( रा. नि०, भा० प्र० भरद्वाजी, वनtica) पीसकर शरीर पर उबटन सा लगावे, कार्पासी, त्रिपर्णा, वनोद्भव कार्पास, भाजी, बाद ३ घंटे के स्नान करे । डो० १ म० पृ०। । यशस्विनी, वन सरोजनी, बहुमूर्ति (२० मा०)
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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