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________________ कपास २०६४ कपास नोट-इसका काढ़ा प्रसवोत्तर देते हैं । इससे गर्भाशय का उत्तम रीति से संशोधन हो रक्तस्राव नहीं होता, आर्तव साफ हो और गर्भाशय शैथिल्यजन्य कष्ट, ज्वर शूल श्रादिकी शांति होती है। बच्चा होने के उपरान्त जब जाल गिर जावे तब ही इसका काढ़ा पिलाना चाहिये यदिअाधेघंटे में गर्भाशय शैथिल्य दूर न हो, तथा नाड़ी को गति तीव्र हो, तो पुनः इसो काढ़े की एक मात्रा देनी चाहिये । डा० नादकर्णी के अनुसार यह स्त्रियों के हरित रोग में भी उपकारी है। ध्यान रहे सगर्भा स्त्री को यह काढ़ा कदापि न देना चाहिये। ___ गर्भाशयिक विकृति में जड़ की छाल का स्वरस ३० से ६० बूंद तक पिलायें अथवा उपयुक्र काढ़े का उपयोग करें। ई० मे० मे। गर्भाशय के शूल निवारणार्थ स्त्री को जड़ की छाल के काढ़े में बिठाकर कटि-स्नान कराते हैं। डी० । ई० मे० मे० पृ० ४०३ । इसकी जड़ का काढ़ा पिलाने से मूत्रोत्सर्गकालीन प्रदाह एवं शूल का निवारण होता है। __ योषापस्मार में इसके काढ़े में बैठने से उपकार होत्म है । इससे वेदना शांत होती है। (ख. अ.) __ स्तन में दूध पाने के लिये कपास को जड़ और ईख की जड़ समभाग, एकत्र काँजी में पीस सेवन करावे। स्तन-रोगों पर (स्तनव्रण एवं सूजन ) पर कपास की जड़ ओर लौकी को, गेहूं को बनाई हुई काँजी में पीसकर लेप करे। गर्भपात कराने के लिये संयुक्त राज्य अमेरिका में कपास की जड़ की छाल ( मूलत्वक् निर्मित प्रवाहीसार ) काम में श्राती है। __ अनार्त्तव वा रजोरोध में 'इलाजुलगुर्बा' में यह काढ़ा उपयोगी लिखा है काढ़े की विधि-कपास की जड़ को छाल २ छटाँक लेकर जवकुट कर एक सेर पानीमें मिला आग पर चढ़ावें । जब ४ छटांक जल शेष रहे, तब उतार छानकर उसमें अंदाज की चीनी मिलाएं। मात्रा-२॥ तोला से ५ तो० तक दिन में दो | बार। खोरी-कर्पास की जड़ की छाल का काढ़ा । गर्भस्रावकारी, प्रार्त्तव-प्रवर्तक एवं त्वरित प्रसव कर्ता है । विलम्बित प्रसव में लुप्तप्राय प्रसववेदना के पुनरानयनार्थ इसका उपयोग किया जाता है । अनार्तव वा रजोरोध, कष्टरज एवं गर्भाशयिक रक्त पात के निवारणार्थ तथा गर्भपात कराने के लिए भी इसका उपयोग करते हैं।-मे मे० इं० २य खं० पृ. ६६ । स्त्री रोगों में, जिनमें प्राशु कार्य-कारित्व उतना श्रावश्यक नहीं । कपास को अपेक्षा अर्गट कहीं अधिक श्रेयस्कर एवं निरापद है और इस कारण भी कि उसके सेवनोत्तर कोई अप्रिय प्रभाव नज़र नहीं पाता और न उसका कोई हानिकर गौण प्रभाव ही होता है। जैसा कि अर्गट के अंतः त्वगीय वा मौखिक दीर्घकालीन प्रयोग के उपरांत देखने में श्राता है। इ० मे० ग०, नवंबर, १८८४ पृ० ३३४-५। देवकपास वा नरमा (Gossy pium Arboreum, Linn Gossy pium Religiosum, Roxb.) -ले। Silk Cotton tree, Religions Cotton tree. -अं० । Fairy Cotton bush Sacred Cotton bush, Cotonnierarborescent,Cotonnier desnonnes -फ्रां I Chinesisehe Baum wollenstande -जर०। नरमा, मनवाँ, : देवकपास, रामकपास, लालकपास, हिं। कार्पास वर्ग (N. 0. Malvaceæ.) उत्पत्ति-स्थान एवं वर्णन-इस जाति की कपास घरों तथा उद्यानों में शोभा के लिए लगाई जाती है । भारतवर्ष के अनेक भागों में इसकी काश्त होती है। अपने गंभीर रक्तवर्ण के पुष्पों के कारण यह हिन्दू देवालयों के समीप साधु की कटियों और उद्यानों में लगी हुई यह प्राय: देखने में आती है। इसका लघु पौधा रक-रंजित और तना ऊँचा एवं झाड़ीदार होता है, जिससे यह पहचानी जाती है। बंगाल ओर दक्षिण चीन में
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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