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________________ कपास २०८७ कपास ___ जली हुई रुई का प्रलेप सूजन उतारता, खाज देश और कास एवं फुफ्फुसौष में शिशु-वक्ष इन मिटाता, जली हुई जगह श्राबला नहीं उठने देता अंगों पर जली रूई छिड़क कर बाँध रखने से और अग्निदग्ध को लाभ पहुँचाता है । चिरकारी उत्ताप एवं वेद की रक्षा होती है और स्वेद का व्रणों के बदगोश्त का अवसादन वा छेदन करती कार्य भी करता है । (मे० मे० ई० २ य खड पृ० है। ग्रहों की गहराई में होनेवाली अस्वच्छता का १७०) शोषण करती है। वेदना-स्थल पर पुरानी रुई डीमक-रुई या मिलित रुई एवं ऊन वा रुई गरम करके बाँधनेसे, विशेषतः उस अवस्था में जब तथा रेशम का बना वस्त्र धारण करने से शरीर कि वहाँ पर सोंठ और नरकचूर समभाग को ले कूट स्वस्थ रहता है । कपास को जलाकर जो राख हो, पोसकर खूब मईन किया हो, उपकार होता है। उसे व्रण, क्षत, जख्म में भर देने से वे शीघ्र भर ताजी रुई को कूट कर गरम करके गरम किये हुये पाते हैं । सूजे हुये एवं पक्षाघाताक्रांत अंगों पर रेंड के पत्ते पर फैलाकर अण्डशोथ पर बाँधने से सोंठ एवं नरकचर का लेप कर ऊपर से उन्हें रुई लाभ होता है। से आवेष्टित कर दें। (Moxa) की तरह मोहीदीन शरीफ-किम्बा अत्युष्ण तरल भी रुई का प्रयोगहोता है । फा० ई०१ म खं० । वस्तु द्वारा दग्ध । नादकर्णी-अग्निदग्ध और व्रणादि से वायु अग्निदग्ध ( Burns and Scalds) निष्कासन के अभिप्राय से रक्षक की तरह रुई का अग्निदग्ध एवं अस्युष्ण तरल वस्तु द्वारा दग्ध में स्थानीय उपयोग होता है। श्रामवाताक्रांत संधि तथा कतिपय अन्य शस्त्रसाध्य व्याधियों में वाह्य आदि पर उन अंगों को शीत से बचाने के लिये . प्रयोगार्थ रुई एक अत्युपयोगी भेषज है । रुई एक तथा हानिकर व्यवसायों में मुख एवं नासिका को • ऐसी बहुप्रयुक्त एवं सर्वसुविदित वस्तु है जिसका यहाँ परिचय देना अनावश्यक प्रतीत होता है। सुरक्षित रखने के लिये और छनना रूप से बोतल श्रादि में डाट देने के लिये रुई काम में आती है। आग से जले हुये की यह एक अतीव उपयोगी एवं गृह भेषज है । जिसमें यह प्रायः कैरन प्राइल कीटाणु शास्त्र में कीटाणुओं को निकालने ( Ex. (समभाग चूने का पानी और अलसी का तेल) clude) के लिये इसका व्यवहार होता है, के साथ प्रयोग में आती है। क्योंकि बाहरी हवा क्योंकि यह वातावरण स्थित रोगाणुओं के लिये का स्पर्श न होने देने और तापक्रम को एक समान छनने का काम करती है और क्षत, व्रणादि तक स्थिर रखने के कारण यह व्रणरोपण-क्रिया में पहुँचने में उन्हें रोकती है । व्रणरोपणार्थ यह व्रण सहायक होती है । इन्हीं कारणों से कतिपय अन्य क्षत, जख़्म आदि पर लगाने के काम आती है। व्याधियों, जैसे, वृद्धावस्थाजात गैंग्रीन (Sen नक्सीर फूटने ( Epistaxis) तथा मसूदों से ile-gangrene ) में तथा कतिपय शस्त्र-कर्मों रक्रक्षरण होने पर आग पर पुरानी रुई को जला जैसे, धमन्यर्बुद (Aneuriem) में धमनी कर उसका धूआँ नाक या मुख से खींचे। इसके बंधन इत्यादि के उपरांत भी शरीरांग तथा अन्य उपरांत इसकी पत्ती का स्वरस २ तोला, एक भागों के आच्छादन एवं आवेष्टन के लिए यह एक तोला मिश्री मिलाकर पीवें। ई० मे० मे० पृ. अतीव उपयोगी वस्तु है। उपर्युक्त प्रयोजनार्थ ४०४-५ । इसकीगद्दी बनाकर सदैव प्रातुरालयोंमें प्रस्तुत रखना सर विलियम ह्विटला-मृदुता, स्थिति स्थापचाहिये। अस्थिभग्नोपयोगी खपाचियों के लिये कता आदि अपने भौतिक गुणों के कारण रुई का गद्दी निर्माणार्थ रुई अत्यन्त उपयोगी, सस्ती, उपयोग होता है। जली हुई तथा प्रावला पड़ी सुलभ और उपयुक्त सामग्री है। मे• मे० भै० हुई सतह के रक्षार्थ यह श्राच्छादन प्रदान करती १ म खं० पृ. ५२-३) है । यथा आमवात, वातरक और विसर्प इत्यादि __ खोरी-शोथग्रस्त अंग, पक्षाघाताक्रांत, प्रत्यंग, व्याधियों में शस्त्र चिकित्सा में भी इसका उपस्फीत पद तथा वातरक एवं प्रामवाताक्रांत संधि- ।, योग होता है। प्रस्तु, अस्थिभग्न, संधिस्थान भ्रंश
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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