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________________ कपास २०६६ • कपास उत्तम जाति के तंतु अत्यंत महीन और रेशम की तरह मुलायम होते हैं और ये ही निकृष्ट जाति का होने पर कड़े और खुरखुरे होते हैं। रासायनिक गुण-कपासका विशेषगुरुत्व १.१८८ है। यह स्वाद रहित और निगंध होता है । कर्पास तंतु जल, सुरासार, ईथर, स्थिर एवं अस्थिर तैल और वानस्पतीय तेजाबों में अविलेय है। जल मिश्रित (Alkoline leys) का कपास पर कोई ब्यक्त प्रभाव नज़र नहीं आता, परन्तु जब ये अति तोचण होते हैं और उन्हें काफी उत्ताप पहुँचाया जाता है तब ये उसे विलीनकर देते हैं। नाइट्रिक एसिड और सल्फ्युरिक एसिड (गंधकाम्ल ) के साथ रुई के योग से एक प्रकार का विस्फोटक द्रव्य प्रस्तुत होता है. जिसे 'गन काटन' (Gun Cotton) वा “पाइराक्सिलीन ( Pyroxyline) कहते हैं । यह पुनः कोलो डियन" (Collodion) बनाने के काम श्राता है। वि० दे. "पाइराक्सिलीनम्" तथा कोलोडियम्"। कतिपय पार्थिव पदार्थों, विशेषतः (Alumina) के लिये कपास में तीव्र मुमुक्षा पाई जाती है। इसीलिये रुई पर पक्का रंग चढ़ाने के लिये इसका उपयोग होता है। लोहे से रुई पर पीला दाग पड़ जाता है और यदि उसे क्षार वा साबुन श्रादि से तुरत दूर न किया गया, तो पुनः उसका मिटाना असंभव हो जाता है। वंग भस्म (Ox. ide of tin) भी रुई से संप्रत हो जाती है। फलतः रंग पक्का करने के लिये इसका प्रायः उपयोग होता है। कपास तुरत कषायाम्ल (Tannic acid) से संप्रन हो जाती है और एक पोत या धूसर वर्ण का यौगिक बनाती है। उत्ताप देने पर नत्रिकाम्ल ( Nitric acid), कपास को वियोजित कर देता है । गंधकाम्ल उसे जलाकर कोयला कर देता है। हरिन वायव्य उसे श्वेत कर देता है और जब इसका सांद्रीभूत अवस्था में ही प्रयोग किया जाताहै, तब संभवतः यह उसे परिवर्तित वा विलीन कर देता है। कपास अत्यन्त ज्वलनसोल है और यह साफ तीव्र लो से जलती है। इसे परिनु त करने पर थोड़ी मात्रामें तेल प्राप्त होता है। इसमें अमोनियां नहीं होता, रुई में १००% उक्त स्थिर तैल पाया जाता है। इस तेल के ही कारण रुई जल में कठि नतापूर्वक क्लेदित होती है। इसलिये इसे शोषण विरोधी कपास ( Non Absorbent Cotton Wool) अर्थात् नाज़ाज़िब रुई कहते हैं । परंतु जब इस रुई में से तेल निकाल लिया जाता है और वह जल का शोषण करने लगता है । तब उसे शोषणकारी या ऐसाबैंट काटन वल ( Absorbent Cotton Wool) अर्थात् कुल्न ज़ाज़िब या ज़ाज़िव रुई कहते हैं। इसके बनाने की विधिरुई को सर्वप्रथम जलमिश्रित क्षार में भिगोकर निकाल लें, इसके उपरांत इसे चूने के घोल में भिगोयें, अंत में इसे लवणाम्ल द्वारा अम्लीभूत जल में डुबोकर फिर उसे साफ पानी से भलीभाँति धो डालें. इससे रुई की चिकनाहट जाती रहती है और वह लिखता शोषण कारिणी हो जाती है। गुण-व्रण एवं क्षत के लिए यह बहुमूल्य व्रण वंधन हैं । शस्त्र क्रिया में इस रुई का बहुत प्रयोग होता है । उल्लिखित प्रयोजन के लिए इसे नाना भाँति की जीवाणु नाशक ओषधियों जैसे टंकणाम्ल, काबालिकाम्ल, सैलिसिलिकाम्ल, थाइमोल, माइडोफार्म, युकेलिप्टोल इत्यादि में भिगोकर सुखा रखते हैं और बोरिक बूल आदि नामों से अभिहित करते हैं । पचन निवारक कपास प्रभृति का जीवाणुनाशक प्रण बंधन में साधारणतया उपयोग होता है । जीवाणु विषयक परीक्षण एवं प्रयोगों में शीशियों के मुंह पर काग की जगह विशोधित वा जीवाणुशून्य कीहुई रुई (Sterlized Cotton) का उपयोग श्रेष्ठतर होता है। गुणधर्म तथा प्रयोग यूनानी मतानुसारप्रकृति-द्वितीय कक्षा में उष्ण एवं रूक्ष ।
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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