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________________ कपाल २०७४ कपास संज्ञा पुं॰ [सं० कम्पिल्ल ] कमीला । कबीला कपालास्थि-संज्ञा स्त्री० [सं० जी०] (१) सुश्रुत कपालक-संज्ञा पुं॰ [सं०] सरहटी। के अनुसार शरीर की पाँच प्रकार की हड्डियों में कपालकुष्ठ-संज्ञा पुं० [सं०क्की.] सुश्रुत के अनु से एक । इस प्रकार की हड़ियाँ खोपड़ी की हड्डी सार महाकुष्ठ का एक भेद। यह कृष्णकपाल ___ की तरह चिपटी होती हैं । दे० “कपाल" (1) + (काली सिकता) की तरह वा काले ठीकरे के (२) खोपड़ी की हड्डी। समान होता है । यथा-कृष्णकपालिका प्रका- कपालिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] (१) दाँतोंका एक शानि कपालकुष्ठानि ।-सु० नि०५ अ०। रोग जिस में दाँत टूटने लगते हैं। यह दंत शर्करा __भावप्रकाश में लिखा है-"कृष्णारुणंकपा रोग की ही एक अवस्था है जिसमें मैल जमने के लाभं यद्क्षं परुषं तनु। कपालतोदबाहुल्यं कारण दॉतफूटे घड़े की ठीकरियों की तरह हो जाते नत्कुष्ठं विषमं स्मृतमू॥" हैं। यहसदा दातो का नाश करनेवाली है। सुश्रत कपाल गण्ड माला-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] एक के अनुसार इसमें जमी हुई शर्करा के साथ दाँतों के प्रकार का रोग। छिलके गिरते हैं । यथालक्षण-यह दुर्गन्धयुक्त श्वेत और रनवर्ण का 'दलंति दंतवल्कानि यदा शर्करया सह । उत्तमांग में होता है। यह कंठमाला का भेद है। ज्ञ या कपालिका सैव दशनानां विनाशिनी।। चिकित्सा-(१ पृष्ठपर्णी मूल का कल्क बना -सु० नि० १६ श्र०। तेल में पकाएँ। इसके उपयोग से लाभ होता है। "कपालेष्विवदीर्यत्सुदन्तानां सैव शर्करा । (२) अम्लपर्णीमूल, रक्रगुञ्जामूल, और मिर्च कपालिकेति विज्ञ या सदा दन्त विनाशिनी ॥ समान भाग लेकर तेल में पकाएँ। इसके सेवन से भयंकर गण्डमाला का नाश होता है। मा०नि०। (३) पाक की जड़, मुडो, पुन्नाग की जड़ (२) खोपड़ी। शवकर्परिका । सु० चि०१ इन्हें समान भाग लेकर सर्व तुल्य घृत और छाग अ० । (३) घड़े के नीचे वा ऊपर का भाग । मूत्र अर्ध भाग मिलाकर पाक करें। खपड़ा। ठीकरा । खर्पर। (४) कर्परकूट । गुण-इसके प्रलेप से ३ प्रहर में गण्डमाला (Olecranon process.): दूर होता है । तीन प्रहर के पश्चात् उष्णोदक से | कपालिनी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] रात । रात्रि । रजनी। निशा । यामिनी । स्नान करे। पथ्य-गेहूं, चावल का लवण रहित भोजन कपालो-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०.] (१) वायविडंग। कपालनालिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] टकुत्रा। ___ रा०नि० २०६ । (२) दरवाजे के ऊपर लगी तकुटो। टेकुत्रा। तकला । त्रिका। तकवा । हुई लकड़ी । वि० [सं० वि० ] कपालविशिष्ट । खोपड़ीवाला। कपालभेदो-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] कदपाल-ता। कपास-सं० स्त्री० [सं० कर्पास] [ वि० कपासी ] कपालरोग-संज्ञा पुं० [सं० पु.] शिरोरोग। सिर एक कार्पास वर्गीय पौधा जिसके टेंट से रुई निक__ की बीमारी । लती है । इसके कई भेद हैं। किसी-किसी के पेड़ कपालसन्धि-संज्ञा स्त्री० [सं० पु.] मस्तक की ऊंचे और बड़े होते हैं, किसी का झाड़ होता है। अस्थियों का मिलन स्थान | खोपड़ी की हड्डी का किसी का पौधा छोटा होता है, कोई सदावहार जोड़। होता है। और कितने की काश्त प्रतिवर्ष की जाती है । इसके पत्ते भी भिन्न-भिन्न आकार के होते हैं। कपालस्फोट-संज्ञा पुं० [सं० पु.] मस्तक वा और फूल भी किसी का लाल, किसी का, पीला, खोपड़े का फोड़ा। तथा किसी का सफेद होता है। फूलों के गिरने कपालास्त्र-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] एक प्रकार का | पर उनमें ढूँढ लगते हैं, जिनमें रुई होती है। डेढ़ों अस्त्र । ढाल । चर्म। __ के प्राकार और रंग भिन्न २ होते हैं। भीतर की
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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