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________________ कनेर कनेर का काढ़ा काम में आता है । सर्प-दष्ट तथा अन्य प्रवल विषैले दष्टों में इसकी पत्ती का स्वरस अत्यल्प मात्रा में दिया जाता है । घी इसका अगद है। सर्प-दंश में एक नस्य काम में आता है, जिसमें इसका फूल पड़ता है। योग यह है सफेद कनेर का सुखाया हुआ फूल और तंबाकू वा सुरती की पत्ती-इन दोनों को बराबर बराबर लेकर, इसमें थोड़ी छोटी इलायची मिलाकर सब को कूट-पीसकर बारीक चूर्ण बनायें। बस नस्य तैयार है। सर्प-दष्ट रोगी को इसका व्यवहार करायें। ई० मे० मे० पृ० ५९३-४।। इसके पत्र के कोमल रोम को सिकिम के पहाड़ो लोग क्षत द्वारा रक-स्राब रोकने में व्यवहार करते हैं। कोंकण में पत्र एवं बल्कल मुलसा एवं कमल के साथ मिला चेचक पर लगाया जाता है। बंगाल और वम्बई प्रांत के लोग पत्रों को तम्बाकू बाँधने में व्यवहार करते हैं । फिर बंगाली विषघ्न समझ पुष्पों से कीड़े मकोड़े दूर रखने का काम लेते हैं । पत्तों में जल को सांद्र बनाने का भी गुण विद्यमान है। शङ्कर पर सिवाय कनेर के दूसरा कोई रंगदार फूल नहीं चढ़ता । इसका सारकाष्ठ श्वेतवर्ण और हृद्काष्ठ मृदु एवं ईषत् कठिन होता है। बंगाल में कभी-कभी कनेर की लकड़ी के तख्ते तैयार किये जाते हैं। लोग कहते हैं कि इसकी लकड़ी पर घोटाई का काम अच्छा चलता और बढ़िया साज सामान बनता है।-हिं० वि० को। कनेर द्वारा होनेवाली धातु-भस्में ताम्र-भस्म-एक तोला ताँबे को श्राग में गर्म कर करके एक-सौ बार कनेर की जड़ के ताजे काढ़े में बुझा लेवे । इसके बाद सफेद कनेर के फूल एक सेर लेकर पीसकर कल्क प्रस्तुत करें। और शुद्ध ताँबे को उक्त कल्क के भीतर रखकर ऊपर से कपड़मिट्टी करें। फिर उस गोलेको निर्वात स्थानमें एक मन उपलों की प्राग देवें । अत्यन्त श्वेतवर्ण की भस्म प्रस्तुत होगी। ३६ का. गुण, प्रयोग-वाजीकरण एवं स्तम्भनार्थ यह अनुपम वस्तु है। चावल भर यह भस्म मक्खन या बताशा में रखकर खाये और ऊपर से दूध में गोघृत मिला पान करें। कनेर लाल पो०-रकपुष्प, चण्डक, लगुड, चण्डातक, गुल्मक, प्रचण्ड, करवीरक (ध० नि०), रक्त करवीरक, रक्रप्रसव, गणेशकुसुम, चण्डीकुसुम, क्रूर, भूतद्रावी, रविप्रिय (रा०नि०), रकपुष्प, चण्डात, लगुड, (भा० प्र०)-सं० । लाल कनेल लाल कनेर (कनइल)-हिं० । लाल करवी गाछ, रककरवी-बं० । नेरियम् प्रोडोरम् Nerium Odorum, Soland.-ले० | कानेर चे, -ते. । केंगण लिगे, केगन लिंगे-कना० । केंगण लिंगे-का० । रक करवीर, ताँबड़ी कणेर-मरा० । गुलाबी फुलनी, राता फुलनी, रातीकणेर-गु० । कन्हेर-बम्ब०। गुण धर्म तथा प्रयोग आयुर्वेदीय मतानुसाररक्तस्तु करवीरः स्यात्कटुस्तीक्ष्णो विशोधकः । त्वग्दोषव्रण कण्डूति कुष्ठहारी विषापहः॥ (रा०नि०व० १०) लालकनेर कटु, तीक्ष्ण और शोधक है तथा यह त्वग्दोष, व्रण, कण्ड (खाज ), कोढ़ पोर विषनाशक है। रक्तवर्ण: शोधकः स्यात्कटु पाके च तिक्तकः । कुष्ठादिनाशको लेपादथ पाटलवर्णकः ॥ शीर्षपीडां कर्फ वातं नाशयेदिति कीर्तितः । रक्तादिचतुरो भेदा गुणाः श्वेतहयारिवत् ।। (नि०२०) लाल कनेर-शोधक, चरपरा और पाक में कड़ा होता है। इसका लेप करने से कोढादि दूर होते हैं। ___ गुलाबी कनेर-मस्तक शूल तथा कफ और वात का नाश करता है। इसके तथा पीला और काला कनेरों के लेष गुण में सफेद कनेर की तरह जानना चाहिये।
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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