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________________ २०२५ दक्षेष ( Cachexia रोग में व्यवहृत होता है । आर एल. दत्त सर्जन पन्ना — कहते हैं। कि इसके वृक्ष का रस लघु गुण विशिष्ट होता है। पूना -- उन शिशुओं जे० मेलॉगे सर्जन, को जो मात्रा से अधिक अफीम देने के कारण दुख भोग रहे हों, केले के पत्र और वृक्ष-वर कल का स्वरस प्रायः दिया जाता है। एक ग्राउन्स ( २ ॥ तोला ) केले के वृक्ष-वरकल के स्वरस में एक आउन्स घी मिलाकर देने से रेचन (Brisk purgative ) कार्य करता है । ई० ए० मारिस आनरेरी सर्जन - प्रवाहिका या चिरकारी प्रतिसार ग्रस्त एतद्देशवासियों को केले की क्षुद्र श्रपक्क फली की कढ़ी बनाकर सेवन करते हुये देखा है । टी० आर० मुदेलियर, सर्जन, मदरास - "साधारण मूत्ररोधजन्य रोगों में कदली-मूल-स्वरस में सोहागे का लावा और कलमी शोरा घोलकर प्रयोजित करते हैं । तिरज और प्रवाहिका रोग में कदली पुष्प स्वरस में दही मिलाकर देते हैं । लाल मुहम्मद, होशंगाबाद, सी० पी०शिश्वतिसार में धारक रूप से इसके सुखाये हुये कच्चे फल का चूर्ण काम में श्राता है। बहुशः प्रकार के अतिसार एवं सूजाक में भी यह उपयोगी है। SHIPP जे० पार्कर, एम० डी०, डिप्युटी सेनिटरी कमिशनर, पूना - " अधम प्राणियों में मल्ल द्वारा बिषाक्रता निवारणार्थ केले की जड़ का रस काम ता है। कहते हैं कि इसमें घी और शर्करा मिलाकर पिलाने से सूजाक श्राराम होता है । एस० एम० सरकार, सर्जन, मुशिदाबाद"चिरकारी अतिसार से मुक्त होने के उपरान्त, भली प्रकार उबाला हुआ, इसका कच्चा फल एतद्देशवासियों का उत्तग खाद्य है । दातव्य दितरणालयों में व्रण-बंधनार्थ गट्टापारचा टिश्श्यू की प्रधिनिधि रूप से इसकी पत्ती बहुत प्रयोग में आती है । एच० डी० टटलियम्, एम० डी०, एम० १४ ६० कदली आर० ई० पी० (लंडन) अहमदनगर - "जहां तक मुझे ज्ञात है, ग्लिटर लगाये हुये सतह के लिये केले की पत्ती सर्वाधिक स्वच्छ एवं सर्वोत्कृष्ट व्रण-बंधन है । अन्य व्रण- बंधनाच्छादनार्थ । भी यह उपयोगी है |". .........|" - ई० मे० प्र० । आर. एन. चोपरा, एम० ए०, एम० डी०"केले का वृक्ष समग्र भारतवर्ष में सामान्य रूप से होता है । इसकी हरी कोमल पत्ती संक्रांत धरा तल ( Danuded surfaces ) के लिए उत्तम श्राच्छादन का काम देती है और देशीय शस्त्रकर्म में इसका प्रचुरता से उपयोग होता है । पका फल- मृदुता - कारक, स्निग्धतासंपादक और जीवोज सम्बन्धी उपादानों ( Vitamin con tent ) से परिपूर्ण है । केले ( Musa paradisiaca ) की जड़ कृमिप्न; पुष्प ( मोचक ) कषाय, काँड-स्वस कर्णशूल एवं रकनिष्ठीवनोपयोगी है। जंगली केला ( Musa sapientum ) भी गुणधर्म में केले के समान होता है । और यह सर्प विशेष ( Boa-con trictor ) के दंश में उपयोगी होता है ।" - इं० ० इं० । नादकर्णी - "पका केला स्निग्ध एवं पोषक है। कच्चा केला शीतल और संग्राही है और यही सुखाया हुआ । स्कर्वीनाशह ( Antiscorbu tic) हैं । प्रातःकाल सेवन करने से सम्यक् परिपक्क केला मृदुसारक (Laxative ) होता है। जड़ पित्त निवारक ( Aptibilions ) होती और मूल्यवान् परिवर्तक मानी जाती है । वृक्ष-स्वरस रक्तस्तम्भक होता है । केला पुष्टिप्रद फल है । यह वृक्ष के तने पर सर्वोत्तम प्रकार से पकता है । तने से भिज्ञ सम्पन्न पकाया हुआ उतना अच्छा नहीं होता। इसक कच्चा फल बिलेषतः रक्तनिष्टोम एवं बहुमूत्र रोगी के लिए बहुमूल्य खाद्य सामग्री है। सुखाया हुआ वा शर्करा द्वारा संरक्षित केला करोग नाशक ( Antiscorbutic ) है । यह श्रुतिसार में भी गुणकारी है। धूप में सुखाये हुये हरे केले के श्रादे की दभी चपाती आध्मान एवं
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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