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________________ कदली २०२४ इसका स्वाद और बढ जाता है । पूर्वीय द्वीपोंका यह प्रधान मेवा है। वहां इसके कच्चे फल के छोटे २ टुकड़े कर उसकी कढ़ी प्रस्तुत करते हैं । यह स्वाद आलू की तरह होते हैं । ( मेटीरिया इंडिका- १ खं० पृ० ३१६–७ ) सी० टी०पीटर्स, एम० बी० चंद्रा दक्षिण अफ़ग़ानिस्तान - उत्तम जाति के केले का पका फल चिरकारी प्रवाहिका श्रतिसार में गुणकारी है। बड़ी जाति के केले का शुष्क फल मूल्यवान् स्कर्वी रोग निवारक ( Anti-Scorbutic ) है । उत्तरी बंगाल में इसके शुष्क पत्र श्री वस्तुतः समग्र वृक्ष को जला देते हैं। फिर राख को एकत्रित कर पानी में घोलकर वस्त्रपूत कर लेते हैं । इससे एक प्रकार का दारीय घोल प्राप्त होता है । जिसमें प्रधानतया पोटास के लवण पाये जाते हैं । जिनका प्रयोग अम्लपित्तहर और स्कर्वीहर श्रौषध रूप से विशेषतया कढ़ी में होता है । जहाँ साधारण लवण सहज सुलभ नहीं, वहाँ कढ़ियों को व्यञ्जित करने के लिए लोग इसका व्यवहार करते हैं । - इं० मे० प्लॉ० एन० सी० दत्तअसिस्टेंट सर्जन दरभङ्गा(१) मुझे प्रवाहिका घोर अतिसारोपयोगी यह एक खाद्यौषध ज्ञात है | भली-भांति उबाला हरा केला और दही में रुचि के अनुसार शर्करा वा लवण मिला सेवन करें । ( २ ) पका केला और पुरानी इमली का गूदा - इनको खूब मलकर पुराना गुड़ वा मिश्री मिला देवें । बंग देशवासियों की यह घरेलू दवा है, जिसका व्यवहार प्रवाहिका के प्रारम्भ में होता है । (३) कष्टप्रद श्राध्मान और अम्लत्व युक्त श्रजीर्ण रोग में तिरहुत के कतिपय भागों में धूप में सुखाये हुये करचे केले के आटे की चपाती काम में आती है। मुझे एक ऐसे रोगी का ज्ञान है जिसमें यह स्पष्ट स्वीकार किया गया है कि केवल पानी में पकाया हुआ सादा सागूदाने के पथ्य से भी सख्त उदरशूल होगया था । चपातियां सूखी ही थोड़े लवण के साथ खाई जाती हैं । - इं० मे० लाँ० कदली आर० ए० पार्कर, एम० डी०, सिविल सर्जन — "मिलित पक् कदलीफल, इमली और साधारण लवण प्रवाहिका रोग में बहुत ही उपयोगी है। प्रवाहिका की उम्र और चिरकारी दोनों दशाओं में मैंने उन श्रौषध का व्यवहार किया और कभी असफल नहीं रहा । निःसंदेह इसे घौषध कह सकते हैं। और जनसाधारण एवं चिकित्सा व्यवसायी दोनों से मैं इसकी विश्वास पूर्वक शिफारिस कर सकता हूं । यह सामान्य एवं सुलभ है तथा शिशुत्रों को इसका निरापद व्यवहार कराया जा सकता है । यह खाने में प्रिय नहीं होता और न इसका कोई कुप्रभाव ही होता है । सुतरां यह इपीकाक्वाना की अपेक्षा श्रेयस्कर होता है । साधारण दशा में केवल एक मात्रा ही पर्याप्त होता है और इसकी तीन-चार मात्रा से पूर्ण श्राराम हो जाता है। रोगी को चुपचाप और हलके पथ्य पर रखें। इसकी वयस्क मात्रा यह है— पका केला १ अाउंस, पकी इमली का गूदा है श्राउंस, साधारण लवण के भाउंस भली भाँति मिलाकर तुरत सेवन करें। दिन में दो या तीन बार इसका उपयोग किया जा सकता है।" जे० एच० थार्नटन, बी० ए०, एम० बी० सिविल सर्जन मुगेर- "केले की कोमल जड़ में प्रचुर परिमाण में कषायिन ( Tannin ) होता है । और वायुप्रणाली तथा प्रजननांगों द्वारा रक्तस्राव होना रोकने के लिये इसका बहुल प्रयोग होता है । प्रदग्ध कदलीवृक्ष की भस्म में प्रचुर मात्रा में पोटाश के लवण होते हैं, जिनका अम्लपित्त ( Acidity ), हृद्दाह और उदरशूल ( Colic ) में अम्लता निवारक रूप से व्यवहार होता है । रक्तनिष्ठीवन और बहुमूत्र ( Diabetes ) रोगियों में इसकी कच्ची कोमल फली पथ्य रूप से व्यवहार की जाती है । - ई० मे० प्रा० मेजर डी० आर० थॉम्सन्स, एम० डी०, सर्जन, सी० आई० ई० मदरास - " प्रवाहिका रोग में केले के फल में लवण मिलाकर उपयोग करते हैं । इसकी जड़ का चूर्ण पित्तहर (Antibitions ) है और यह रक्ताल्पता और प्रकृति
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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