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________________ कदलय २००७ कदली कदलय-संज्ञा पुं॰ [देश॰] जंगलो मेथी । ( Des modium Triflorum ) कदला वल्ली-[?] ठोकरी बूटी। कदलिक-संज्ञा पुं० [सं० लो. ] कुचिला। कलिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] दे० "कदलो"। कदलिया-संज्ञा स्त्री० [सं० कइली ] मोथा । कदलिक्षता, कदलीक्षता-[ संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] एक प्रकार को ककड़ो। वै० निघ० । कदली-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] (१.) श्रादी वा हल्दी को ही जाति का उष्ण कटिबंध स्थित प्रदेशों में होनेवाला एक वृक्ष जिसे उद्भिद् तत्ववेत्ता कोमलकाण्ड-वृक्षों की श्रेणी में गिनते हैं । उद्भिशास्त्र में कोमलकाण्ड-वृत उसे कहते हैं जिसके कांड अर्थात् तने में काष्ठ का भाग अल्प होता है। पर केले में वस्तुतः कोई कांड नहीं होता । जिसे भ्रमवश कांड मान लिया जाता है, वह पत्र का शेष भाग अर्थात् काण्डकोष रहता है। हिंदी में केले का बकजा कहानेवाला अंश उसका समष्टिमात्र है। केले के पेड़ में पिंडमूल (Roots, stalks) होता है। इसो पिण्डमूल से पत्र निकलते हैं । पिण्डमूल के मध्य स्थल से एक सरल गोलाकार श्वेत वर्ण मजा (Pith) उत्पन्न होती है। इसी के चारो ओर स्तर-स्तर में कोष छिप काण्ड को भौति श्राकार धारण करते हैं। केले के कोमलकाण्ड कहलाने का यही कारण है। काल पाने पर उक्त मज्जा पुष्पदण्ड में परिणत हो जाती है । जब नूतन पत्र निकलता है, तब यह मूल से उत्पन्न होकर और मज्जा के पार्श्व पर लटक कर ढालू सूड जैसा बढ़ने लगता है और अन्ततः कक्ष से बाहर हो पत्र दिया करता है। केले का पत्रांश अत्यंत विस्तृत होता है। केले के कच्चं पत्र को मध्य पत्र कहते हैं ।प्रत्येक पत्र ६-८ फुट लंबा और१-२ फुट चौड़ा होता है । पत्र की मध्य पशुका से किनारे तक एक लंबी सरल शिरा पड़ती है । उक्त सरल शिराओं के मध्य अश्वत्थपत्र की जाल की भांति सूक्ष्म विन्यास होता है। सुतरां थोड़ा प्रवल वायु लगते ही उक्त शिरा फट जाती है। केले के पेड़ का पत्र भाग,वृन्त भाग और काण्डकोष सभी अंशुविशिष्ट रहता है । मजा बहुत कोमल होती है। यह केवल पक्की-पक्की कुछ रसाधार शिराओं का समष्टिमात्र है । मजा का दंड ही बढ़कर पुष दंड बन जाता है, केले के फूल को संस्कृत में 'मोचा' कहते हैं । मोचा आने से पूर्व केले के स्कन्ध-देश से एक 'असिफलक' निकलता है, जिसे पत्ते का मोचा कहते हैं । पत्तेवाले मोचा के भीतर ही मोचा रहता है । मोचा के पुष्ट होने पर पत्ते के मोचा का तल फटता ओर मोचा नीचे की ओर लटकने लगता है । नारियल, ताड़, सुपारी, खजूर, प्रभृति वृक्षों में भी पत्ते का मोचा रहता है। मोचा कदली वृक्ष के स्कंध से ऊर्ध्वमुख निकलकर, बाद को कुछ बढ़ने पर निम्नमुख झुक पड़ता है। यह देखने में कोणाकार होता है। लंबाई प्रायः एक फुट और मध्य भाग की चौड़ाई कोई ६ इञ्च रहती है। प्रत्येक मोचा में अनेक विभाग होते हैं । प्रत्येक विभाग में दो सार मुकुल पुष्प चर्मवत् पौष्पिक पत्रावर्त से श्रावृत रहते हैं । प्रत्येक सार में है या १० पुष्प पाते हैं। प्रत्येक पुष्प में फल लगता है । पुष्पों के मध्य पु पुष्प (Male-flowers) निम्न श्रेणी और स्त्री पुष्प वा उभय लिंग पुष्प ( Female flowers or Hermaphrodite flowers) ऊर्ध्व श्रीणो में रहते हैं। प्रत्येक भाग के पुष्प जैसे-जैसे बढ़ते हैं, वैसे-वैसे उनके श्रावरक के पौष्पिक पत्रावर्त खिसक पड़ते हैं। जड़ की ओर से पुष्प फल में परिणत होते हैं । प्रत्येक पौष्पिक पत्रावर्त में ६ से १० तक फल लगते हैं । एकएक फलसमूह को हिंदी में 'गहर' कहते हैं। पौधिक पत्रावर्त में जितने पुष्प लगते हैं, उतने फल हो नहीं सकते । एक वृक्ष में एक ही समय एक से अधिक गहर नहीं आती | गहर काट लेने से कुछ दिन पीछे केले का पेड़ सूख जाता है। बहत पुराना हो जाने पर वा गहर छोड़कर नष्ट हो जाने पर वृक्ष के पिंडमूल में ६ से ८ तक कल्ले फूटते हैं। __ केला अति शीघ्र शीघ्र बढ़ता है। अच्छी भूमि में इसे लगाने पर यह वृद्धि सहज ही देख पड़ती है। केला अनेक प्रकार का होता है । प्रायः केले में वीज नहीं होता । पर जंगली और चट्टग्राम प्रदेश
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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