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________________ कटेरी १६५८ कटेरी उसे आँखों में लगावे। इसके दो-तीन बार के प्रयोग से आँखों से पानी निःसृत होकर रोग | श्राराम हो जाता है। इसका दूध नाक में टपकाने से मृगी रोग का | उन्मूलन होता है । इसे अंखि में लगाने से नेत्रा- | भिष्यंद आराम होता है ।-ख० अ०।। कण्टकारी मूल इसकी जड़ और भंग के बीज दोनों बराबर २ | लेकर शिशु-के मूत्र में पीसकर नस्य देने से मृगी दूर होती है और प्रतिश्याय प्राराम होता है। इसकी जड़ को नीबू के रस में घिसकर आँख में लगाने से धुन्ध और आला ये दूर होते हैं । -ख० अ०। ऐन्सली–देशी चिकित्सकों के मतानुसार कटेरी का द्र, किंचित्तिक्क और ईषदम्न फल तथा मूल दोनों श्लेष्मानिःसारक होते हैं अतएव वे इन्हें कफ रोग (Coughs) क्षयरोग (Consum ptive Complaint) एवं दोपज श्वास रोग में भी क्वाथ, अवलेह और गुटिका रूप में योजित करते हैं । काढ़े की मात्रा १॥ तोला की है और इसे दिन में २ बार देते हैं । -मेटीरिया इंडिका, खं० २, पृ०६०१ उ. चं० दत्त-कण्टकारी-मूल कफनिःसारक है तथा कास (Cough), श्वास, प्रतिश्याय ज्वर एवं उरःस्थ वेदना में इसका उपयोग होता है। औषधों में क्वाथ, अवलेह और घृत प्रभृति नाना रूपों में कण्टकारी व्यवहृत होती है। कास एवं प्रतिश्याय रोग में कटेरी की जड़ के काढ़े में पीपल का चूर्ण और मधु मिलाकर व्यवहार करते हैं और आक्षेपयुक्त कास ( Cough) में सैंधव और हिंगु के साथ यह सेव्य है। -हिंदूमेटीरिया मेडिका। छर्दि निग्रहणार्थ-कण्टकारी-मूल को पीसकर मदिरा के साथ व्यवहार करते हैं। यह कफनिःसारक एवं मूत्रल है। अतएव प्रतिश्याय एवं उवर में इसकी जड़ का बहुल प्रयोग होता है। नादकर्णी-कटेरी की जड़ का प्रयोग बृहतीमूल की भाँति होता है । श्वासरोग विशेष । (Humoralasthima), कफ (Cough) प्रतिश्याय-ज्वर तथा उरःशूल एवं मूत्रकृच्छ, ( Dysuria ), वस्त्पश्मरी, मलावरोध, जलोदर, उग्र ज्वर के परिणाम स्वरूप होनेवाला रोग, क्षय रोग, कुष्ठ, सार्वा गिक शोथ (Anasarea) साांगिक शक्ति की मंदता, यकृदुदर और प्लीहो. दर इन रोगों में कटेरी व्यवहृत होती है ।प्रवाहिका एवं शोथ रोग में इसके साथ कुर्चि वा कुड़ा योजित होता है । कटेरी के जड़ के काढ़े के साथ सुरासार और खनिज मूत्रलौषध मिलाकर व्यवहार करते हैं और सेवन काल में दूध का पथ्य देते हैं। ई० मे मे० पृ. ८ ५-६) आर० एन० चोपड़ा-कण्टकारी-मूल भार• तीय चिकित्सकों द्वारा प्रयक श्रोषधों का एक प्रधान उपादान है। उन्हें बहुत पहले से इसका प्रवल मूत्रकारक, श्लेष्मानिःसारक और ज्वरघ्न प्रभाव ज्ञात है। ज्वर एवं कास में कटेरी की जड़ और गुरुच के काढ़े को वल्य बतलाते हैं। इं० डू० इं० पृ. ५६६। ___ गोदुग्ध अोर बूरे के साथ इसकी जड़ का ( वा मूलत्वक् ) चूर्ण प्रवल स्तंभक है। -म० मु०। बु० मु०। कटेरी की जड़ के काढ़े का गंडूष करने से कीड़े खाये हुये दाँतों का दर्द श्राराम होता है । ___ जलंधर और ज्वर (तप मुफरद व मुरकब) में कटाई की जड़ परीक्षित औषधि है । __ अर्द्धावभेदक और मृगी में इसकी जड़ और हल्दी दोनों को घिसकर गोघृत मिला शिरोऽभ्यंग करने से उपकार होता है। ज्वर में कटाई की जड़ की धूनी लेने से ज्वर शांत होता है। गलगण्ड में एवं अबुद रोग में इसकी जड़ गले में लटकाने से उपकार होता है। . इसकी जड़ को स्त्री-दुग्ध में विसकर नाक में सुड़कने से मगी रोग प्राराम होता है। ___ गर्भपात, मृतवत्सा वा जात शिशु का जीवित न रहना आदि स्त्री-रोगों में कटाई की जड़ और पीपल को भैंस के दूध के साथ पीसकर पिलाने से
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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