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________________ कटहल १९४० जिससे शरीर क्षीण हो जाता है । वैद्यों ने इसके बीजों को मधुर एवं कषाय वा विकसा लिखा है । उन्होंने यह भी लिखा है कि ये दाजीकरण की शक्ति को वर्द्धित करते एवं शुक्र को गाढ़ा करते हैं। र स्तम्भक हैं । ये गुरु, मलावष्टंभकारक, शरीर के वर्ण को निखारते, पेशाब कम करते और वायुजनक हैं । - ख० श्र० नव्यमत डीम - टहल का दुधिया इस जल में श्रविलेय सुरासार ' में अंशतः दिलेय और बेोल में पूर्णतया विलेय होता है । यह रबर ( Caoutchoue ) का एक भेद है और स्वाभाविक अवस्था में ( Bird lime ) की भांति काम में श्रा सकता है और टूटे वरतनादि के जोड़ने के लिए सोनेंट की भाँति व्यव हार किया जा सकता हैं । उबलते हुए जल में प्रक्षालित करनेसे यह कड़ा होजाता है और साधारण कामों में भारतीय रबर की भाँति काम श्र सकता है । इसकी लकड़ी द्वारा प्राप्त पीला रंग रालीय स्वभाव का होता है । और खौलते हुए 1 पानी वा सुसार द्वारा प्राप्त किया जा सकता है फा० ई० ३ भ० पृ० ३५५ । नादकर्णीयह अत्यन्त सुबाहु एवं सुविख्यात भारतीय फल है । इसे अत्यधिक परिमाण में भक्षण करने से दस्त धाने लगते हैं ! रिल श्रामाशय में और विशेष कर प्रातःकाल इसका भक्षण करना सर्वोपरि होता है इसका कच्चा फल साधारणतः ( Pickles ) बनाने के काम में श्राता है । पकाने पर इसकी उत्तम कढ़ी बनती है । इसका भुना हुआ बीज उत्तम खाद्य है । और यह अखरोट के तुल्य होता है । वृक्ष का दूधिया रस सिरके में मिलाकर ग्रंथि शोध एवं विस्कोटों ( Abscesses ) पर प्रलेप करने से उनकी विलीनीभवन ( Absor ption ) वायोपादन (Suppuration) की क्रिया निर्द्धित हो जाती है। इसकी कोमल पत्तियाँ एवं जड़ स्वरोगों में लाभकारी हैं। जड़ का काढा तथा जड़ से स्रावित रस द्वारा बना सांद्र पदार्थ ( Concretions ) ये कटहल दोनों अतिसार रोग में दिये जाते हैं। इसकी पत्तियां सर्प - विष का श्रगद समझी जाती हैं । The Indian Materia Medica P, 86. कच्चे फल की तरकारी और अचार होते हैं और फल के कोए खाये जाते हैं । इसकी छाल से बड़ा लसीला दूध निकलता है जिससे रबर बन सकता है । इसकी लकड़ी नाव घोर चौखट श्रादिके बनाने के काम थाती है । इसकी छाल और बुरादे को उबालने से पीला रंग निकलता है जिससे बरमा के साधु अपना वत्र रंगते हैं । इसके वल्कल से अत्यन्त श्याम वर्ण का निर्यास निकलता है। जिसका भेद विन्दुलिप्त रहता और जल में घुल सकता है। रस मूल्यवान् लेप और लासे की भाँति व्यवहृत होता है । उससे लचीला, चमड़े - जैसा पानी रोकनेवाला और पेंसिल के चिन्ह मिटाने योग्य रबड़ बन सकता है किंतु श्रधिक रबड़ नहीं निकलता । कटहल का काष्ठ वा चूर्ण उबालने से पीला रंग तयार होता है । उससे ब्रह्मदेश वासी साधुनों के व रंगे जाते हैं | कटहल के रंगकी माँग मदरासभारत के अन्य प्रांत और जावासे भी श्राया करती है । वह फिटकरी डालने से पक्का और हलदी छोड़ने से गहरा पड़ जाता है। नील मिलाने से कटहल का रंग हरा निकलता है । उसे रेशम रंगने में प्रायः व्यवहार करते हैं । बङ्गाल में फल और काष्ठ दोनों से रंग बनता है । अवध में वल्कल और सुमात्रा में कटहल के मूल से रंग निकालते हैं । वल्कल में तन्तु होता है । कुमायूँ में तन्तु से रज्जु बनती है । वृक्ष का रस मांस के शोध श्रीर स्पोट पर सयमल की वृद्धि के लिए लगाया जाता है । नवीन पत्र चर्म रोग और मूल अजीर्ण पर चलता है। बीजमें जो मण्डवत् द्रव्य रहता है, वह उसको "सुखाने और कुटाने पिटाने से पृथक हो सकता है पक्व फल स्तम्भक और पक्क फल सारक होता | परन्तु अत्यन्त पौष्टिक होते हुये भी यह कुछ कठिनता से पचता है। बीज को भूनकर खाते हैं । इसे पीसने से सिंवाड़े के आटे जैसा निकलता है। कच्चे फल की तरकारी बनती है। 1 भीतरी का पीत अथवा पीत प्रभ धूसर वर्ण,
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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