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________________ १९३१ aree वाजिकरण है । यह शिश्न को प्रहृष्ट करता, वीर्यस्तम्भन करता, रक्तको दूषित एवं विकृत करता और सांद्र सौदावी खून उत्पन्न करता है । यह श्रध्मान कारक एवं चिरपाकी है तथा इसे लवणात करके खाना अथवा इसके भक्षणोपरांत लवण खा लेना, इसके बीजों को भूनकर खाना तथा शीतल जल पान करना, इसके दर्षन हैं । यह वायु एवं पित्तजन्य रोगोंको लाभकारी है तथा शरीरावयवों को बलप्रद है । इसके बीज भी वाजी 1 करण हैं और शुक्र उत्पन्न करते हैं । कच्चा कटहल पका खाने से क्षुधाधिक्य का निवारण होता है । इसके वृत्त के कोमल पत्तों को घी से चिकना करके कई बार उकते पर बाँधने से उकता श्राराम हो जाता है । यदि सर्पदष्ट व्यक्ति को यथा संभव खूब अफर कर कटहल खिलाया जाय, तो विष उतर जावेगा । यदि खूब पेट भर कटहल भक्षणोपरांत केला खालें, तो वह शीघ्र परिपाचित हो जायगा | और यदि खूब कटहल खाकर ऊपर से निरन्तर पान सेवन करें, तो काल कवलित हों । इसका प्रमाण यह है कि जब कटहल पर पान की पीक डाली जाती है, तब वह फूल जाता है । कटहल किसी-किसी प्रकृति में एतजन्य दर्प का नाश ताजा नवनीत के भक्षण से भी हो जाता है । इसका मुरब्बा और हलुवा भी उत्तम होता है । परन्तु इन्हें ऐसे कटहल से बनाना चाहिये जो किंचित् श्रर्द्धपक एवं रेशा रहित हो और उसमें थोड़ी कस्तूरी और केसर भी गुलाब जल में विसकर मिला देवें । इसका मूसला जलाकर अकेले घा कपोत- विष्ठा और चूने के साथ फोड़े पर लगाने से उसमें मुह हो जाता है । खुलासतुल् इलाज नामक ग्रंथ में लिखा है कि कटहल के फूल को पानी में पीस छान कर तुरत पी लेने से विशुचिका जन्य छर्दि का नाश होता है | नुसखा सईदी नामक ग्रंथ के प्रणेता का कथन है कि कटहल में फूल नहीं होता । जखीरा श्रकबरशाही में लिखा है कि यह चिरपाकी है । इसके भुने हुये बीजके भक्षण से इसके उक्त दोष का निवारण होता है । इसका नीहार मुख खाना अत्यन्त वर्जित है । वैद्यों के मत से कटहल शीतल, बादी, कसेला, गुरुपाकी, कटहल सुधःभिजनन, मधुर, वीर्य एवं शक्रिवर्धक, दिलपसन्द, विष्टभी ( काबिज़ ) और शरीर को उज्वल करनेवाला है। इसके कच्चे पत्तों को पीसकर त्वग्रोगों पर प्रलेप करते हैं। इसकी जड़ के चूर्ण को फंकी देने से दस्त बन्द होते हैं । इसक' कच्चा फल - मंजारोवकारक पर पका . फल मृहुरेचक - मुलय्यन है । यह शरीर को स्थूल करनेवाला होने पर भी कठिनता पूर्वक हज़म होता है । ग्रन्थि शोथ के शीघ्र परिपाकार्थ उसपर इसके पत्तों का प्रलेप करते हैं । इसकी जड़ को श्रौटा-छानकर नाक में टपकाने से शिरःशूल नष्ट होता है । उसे पीसकर पानी के साथ पिलाने से कै होकर साँप का विष उतर जाता है। इसका चूर्ण प्रतिदिन ११ माशा उसरोत्तर बढ़ा बढ़ाकर खाने से वमन तथा रेचन होकर फिरङ्ग रोग का नाश होता | धन्वन्तरी कहते हैं। कि पका हुआ कटहल खाने से वायु और पित्त का नाश होता है; शरीर के अंग प्रत्यङ्गों को तथा WE को शक्ति प्राप्त होती है । यह शुक्र उत्पन्न करता, पिपासा को न्यून करता, वक्ष को श्लेप्यादि से स्वच्छ करता, उता का निवारण करता, शरीर की दीप्तिमान करता, चित्त को प्रफुलित करता, मूत्र - प्रखाव को घटाता, उदरज कृमियों को नष्ट करता, और काबिज मलावरोधकारक एवं गुरु । है 1 वृक्ष को जड़ से उत्पन्न कटहल समशीतोष्ण वा दिल है । यह बात एवं पित्त को नष्ट करता, हृदय को शक्ति प्रदान करता, प्रकृति में किसीभाँति शीत संजनित करता, शरीर को क्षीण करता, पर रूह तवाना रहती हैं, पाखाना साफ लाता, कफ एवं उदरस्थ मलादि को दूर करता, और उस ज्वर की दूर करता है जिसे प्राते हुये ६ मास व्यतीत हो गये हों । कटहल को नीहार मुंह न खाना चाहिये | कच्चे कटहल की तरकारी खाना खाज में लाभकारी है । परन्तु गुरुवाकी होती है । यह वित्त को नष्ट करती है तथा जलोदर एवं सोजिरा बाह को लाभकारी है और यह श्लेष्मा को वृद्धि करती है । कटहल अधिक न खाना चाहिये । इसके अत्यधिक सेवन से खाना खा लेने के कुछ देर उपरांत वमन हो जाने का रोग लग जाता है
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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