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________________ का कहते हैं कि 'कच्छप किसी को एक बार काटने के लिए पकड़ने पर बिना मेघ गरजे नहीं छोड़ता। इस जाति में aियाँ अधिक होती हैं। पुरुषों की संख्या श्रल्प है । स्त्री एक बार ५०-६० अण्डे देतो है । स्त्री को श्रायु के अनुसार अण्डे भी न्यूनाधिक निकलते हैं । १६१७ 1 संतरण के लिए समुद्रकच्छप के मत्स्यकी भाँति पर होते हैं । इस प्रकारके पर अन्य किसो जातीय कच्छप के दीख नहीं पड़ते। इसके अंग-प्रत्यंग भीतर योगी हैं । श्रडे देने का समय छोड़ यह प्रायः तट पर नहीं श्राता । कोई कहते हैं कि रात में यह निर्जन स्थान में चरते फिरते हैं । समुद्र-कच्छप कभी कभी अपनी प्यारी घासपत्ती खाने को उपकूल पर चढ़ बहुत दूर पर्यन्त चला जाता है । यह समुद्र के जल में निष्यंद भाव से तैरा करता और देखने में मुर्दा मालूम पड़ता है । सन्तरण समुद्र-कच्छप विशेष कटु होता है । सामुद्रिक उद्भिद ही इसका प्रधान खाद्य है । फिर भी जिस सामुद्रिक कच्छप के गात्र से कस्तूरी की भाँति गन्ध श्राती है, वह घोंघे पकड़ पकड़कर खाता है । अण्डे देते समय इस जाति की स्त्री रात में पुरुष के साथ समुद्र छोड़ बहुत दूर किसी द्वीप में वालुकामय स्थान में उपस्थित होती है । वह बालू में दो फीट गहरा गड्ढा कर लेती और उसी गड्डे में एक समय १० अंडे देती है । इसी प्रकार दो-तीन सप्ताह में फिर वह दो बार अरडे दिया करती है । श्रण्डे का श्रायतन छोटा और गोलाकार होता है । वह सूर्य के उत्ताप से १५ से २६ दिन के बीच फूट जाता है । श्रण्डा फटने से पूर्व कच्छप शिशु के पृष्ठ का आवरण नहीं होता । उस समय यह श्वेत वर्ण का दीख पड़ता और दारुण विपद का वेग रहता है। ज़मीन पर इसे पक्षी मारते और जल में जा गिरने से कुम्भीर एवं सामुद्रिक मत्स्य खा डालते हैं । श्रति श्रल्पसंख्यक शिशु जीते-जागते शेष रह जाते हैं। उस समय एक ए. समुद्र-कच्छप वज़न में २० मन तक तुलता है। इस जाति का कच्छप मानव जाति का अनेक उपकार करता है । नाना स्थानों के लोग कछुआ इसका मांस खाते हैं । विशेषतः जहाँ कच्छप का बड़ा कोष पाते हैं वहाँ लोग उससे नका, कुटीर के श्राच्छादन, गौ श्रादि को सानी देने का पात्र और व्यवहारोपयोगी अन्य कई प्रकार के वस्तु बनाते हैं । यह जाति प्रधानतः तीन श्रेणियों में विभक है । पुनः इसके १ - १० भेद होते हैं । इस कछु के कोष से उत्कृष्ट कड़े बनते हैं । हम लोग महाभारत में गज-कच्छप का युद्ध पढ़ विस्मित हो जाते हैं । किंतु वर्तमान चाखाम द्वीप के कच्छप का विवरण सुनने से वह घटना असंभव समझ नहीं पड़ती। डार्विन साहब ने चाखाम द्वीप में अत्यन्त वृहदाकार कच्छप देखा था । श्रर्किलेगो द्वीप-पुज में बहुत बड़े बड़े कच्छप विद्यमान हैं। उनमें एक-एक कच्छप का केवल मात्र मांस वज़न में प्रायः ढाई मन होता है । संदेह करते हैं कि एक कच्छप को सात ठ श्रादमी उठा सकते हैं या नहीं। स्त्री की अपेक्षा पुरुषों की पूछ भी लम्बी होती है । यह कच्छप जब जलशून्य स्थान में रहते हैं या जल-पान कर नहीं सकते, तब वृक्ष के पत्तों का रस पिया करते हैं । ( हि० वि० को ० ) भगवान मनु के मत से कच्छप भच्य पंचनखी में गिना जाता है— “श्वाविधं शल्यकं गोधा खड्गकूर्म शशांस्तथा । भयात् पञ्चनखेवाहुरष्टांश्च कतोदतः ॥” ( मनु ५ । १८ ) जाति का लक्षण वराहमिहिर ने कच्छप इत्यादि इस प्रकार हैं— "स्फटिक रजतवर्णो नीलराजीवचित्र: कलसमदृश मूर्त्तिश्च रुवंशश्च कूर्म । अरुणसमवपुत्र सर्षपाकारचित्रः स नृपमहत्वं मन्दिरस्थः करोति ॥ अञ्जनभृङ्गश्यामवपुर्वा विन्दुर्विचित्रोऽव्यङ्ग शरीरः । सर्पशरा वा स्थूलगलीय: सोऽपि नृपाणां राष्ट्रविवृद्ध्ये । वैदूर्यत्वस्थूल कण्ठस्त्रिकोणो गूढच्छिद्रश्चारुवंशश्च शप्तः ।
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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