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________________ कछुआ कामा से ये किसी को पीछे की ओर से पकड़ने पाते देखसुन नहीं सकते। यह कच्छप प्रायः सो वर्ष से अधिक समय तक जीवित रहता है। बिलकच्छप का स्वभाव अन्य कच्छप जाति से स्वतन्त्र होता है। यह स्थल कच्छप की भाँति धीरे धीरे नहीं चलता; प्रत्युत जल-थल दोनों स्थान में अति शीघ्र यातायात करता है। बिलकच्छप केवल शाकपत्र से सन्तुष्ट नहीं रहता । सुविधा होने पर यह जीव-जन्तु इत्यादिपकड़कर भी उदरस्थकर लेता है । इसका अंडा प्रायः गोलाकार, शम्बूकादि की भाँति चूर्णोत्पादक प्रावरण से आच्छादित और वर्ण में स्वच्छ होता है । बिल कच्छपी मिट्टी खोद कर गड्ढे में अंडे देती है। वह सदा बिल के पास ही गड्ढा बनाती और निरंतर इस विषय में विशेष सतक रहती है, कि कहीं शत्रु को चोट तो अण्डे पर नहीं पड़ती। यह विविध प्रकार से होता है। एशिया में १६, अमेरिका में १६, यूरोप में २, और अफरीका में १ प्रकार का बिलकच्छप मिलता है। पक्षी की अस्थि की भाँति अविच्छिन्न रहती हैं जलकच्छप मनुष्य के विशेष काम न श्राता। वङ्गदेश के कुछ नीच लोग इसे खाते हैं। किन्तु समुद्रकच्छप से मानवजाति का अनेक उपकार होता है । कोई उसे खाता और कोई अस्थि से कड़ा बनाता है। स्थलकच्छप भी जल में बहुत प्रसन्न रहते हैं। यह एकबार में ही अधिक जल पीलेते और कीचड़ में शरीर घुसेड़ देते हैं । सागरवेष्टित द्वीपसमूह में स्थलकच्छप अधिक होते हैं । ये बहुसंख्यक एकत्र बल बाँधकर घूमा करते हैं। जहाँ झरना चलता है, वह स्थानकच्छप को अच्छा लगता है । ये विविध स्थलोंमें गड्ढे बना लेते हैं । यात्री मार्ग में जल न पाने पर उक्क गढ़ों से जलका पता लगा सकते हैं। __ जो स्थलकच्छप ऊँचे अथवा ठण्डे स्थान में रहते हैं, वे तिक और कटुरसविशिष्ट वृक्षों के पत्ते खाते हैं। चाखामद्वीपवासियों का कहना है कि स्थानीय कच्छप तीन चार दिन तक जल के पास रहते, पुनः निम्न भूमि को चल पड़ते हैं। किसी-किसी जगह स्थलकच्छपों को वृष्टि के जल के सिवा अन्य समय रहने के लिए जल नहीं मिलता; फिर भी जोते जागते रहते हैं। मार्ग में प्यास लगने पर उक्त दीपवासी कछए को मार कर खोल से जल निकालकर पी लेते हैं। यह जल अत्यन्त परिष्कृत रहता है और पीने में कटु प्रतीत होता है। वहाँ का स्थल कच्छप प्रतिदिन दो कोस चल सकता है । शरत्काल कच्छप के मिलन का समय है। इसी समय स्त्री पुरुष एकत्र होते हैं । पुरुष सुख के आवेश में मत्त हो प्राण छोड़ चिल्लाया करता है। वह कर्करा ध्वनि २०० हाथ दूर से सुन पड़ती है। इससे द्वीपवासी समझ जाते हैं, कि अब कछुये के अंडे देने का समय अागया है । बालू से भरे हुये स्थान पर कछुई अंडे देती और फिर उस पर बालू चढ़ा देती है । पर्वत पर इधर-उधर गर्त में भी कछुई अंडे दे देती है। एक स्थान में १५ अंडे रहते हैं। अण्डा देखने में साफ और पाठ इञ्च तक बड़ा होता है । इस जाति के कछुये बहिरे होते हैं, इसो नदी कच्छप सर्वदा ही जल में रहता है, कभीकभी स्थल पर आ जाता है । यह बहुत बड़ा होता और हर एक वजन में ३५-३५॥ सेर का होता है। इसकी खोल का परिमाण १३॥ इञ्च है । यह जल में और जल के ऊपर तैरा करता है। इसकी देह का निम्न भाग किंचित् श्वेत वर्ण, गुलाबी अथवा नीला सा दीख पड़ता है । किन्तु उपरि भाग नाना विध रहता है । रात्रि होने पर वह अपने को निरापद समझता और नदी-तट, नदी के समीप गिरे हुये वृक्ष की शाखा अथवा नदी में तैरते किसी काष्ठ पर चढ़कर विकाम करता है। मनुष्य की आवाज़ अथवा किसी प्रकार का स्वर सुनने पर नदी कच्छप तत्क्षण नदी के गर्भ में डूब जाता है। यह बहुत ही मांसप्रेमी होता और कुम्भीर का छोटा बच्चाभी पातेही उदरसात् करता है। श्राखेट वा श्रात्मरक्षा करते समय नदीकच्छप तीरवत् मस्तक और ग्रीवा चलाता है। किसी को काटने पर शीघ्र वह उसे नहीं छोड़ता । दंष्ट्रस्थान उखाड़ डालने पर ही पृथक् होता है । इसो से सब कोई इस जाति के कच्छप से भय खाते हैं। भारतवासी
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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