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________________ १६१० कचूर और पाँव के तलवों की जलन दूर करता, मुखवैरस्य का निवारण करता, कफ तथा खाँसी को लाभ पहुँचाता, कंठमाले को नष्ट करता, सुधा उत्पन्न करता, कोद, बबासीर और फोड़े-फुन्सी को श्राराम पहुँचता तथा श्वासकृच्छता, वायु के विकार और वायुगोला-गुल्मरोग को नष्ट करता है । यह दरीय कृमियों का नारा करता है। यूनानी हकीमों वर्णनानुसार यह रोधोद्घाटन करता और उल्लास है । यह हृदय, मस्तिष्क श्रीर आमाशय को बल प्रदान करता एवं मूत्रल और श्रार्त्तव प्रवत्तंक है। यह सौदात्री माहे को दूर करता, तथा शिशुजात प्रवाहिका एवं पाण्डु ( यक़ीन ) को लाभ पहुँचाता है और भूख बढ़ाता है। इसे मुखरडल पर प्रलेप करने से मुँहासे नष्ट होते हैं । ख० श्र० । मख़न मुरिदात में यह अधिक लिखा है कि यह खाना खूब खिलाता है और दस्तावर है । यह हृद्य है और अवरोधों को दूर करता और हृदय, मस्तिष्क एवं श्रमाशय को बलप्रदान करता है । यह हैवानी तथा तबई रूह को साम्य है तथा कामोद्दीपन करता, शरीर को स्थूल वा वृहित करेता एवं विषैले जानवरों के विष का तिर्याक - श्रगद है । यह छहिर, मूत्रप्रवर्त्तक तथा श्रप्रवर्तक है और सौदा का रेचन करता एवं कफज कास, सौदावी अर्थात् वायु के दोन खान, जरायुगत वायु, शिशुजात प्रवाहिका और बाह ( बाजीकरण ) के लिए लाभकारी है । मुख में रखने से यह दंतशूल नियता, चावने से सर्द एवं तर खाँसी और लहसुन तथा प्याज की दुगंधि का अपहरण करता है । शीतल शोर्थो पर इसके प्रलेप करने से सूजन उतर जाती है । और शूल नष्ट होजाता है। इसका एक बड़ा टुकड़ा कटि में बाँधना बाह को शक्रिप्रद कामानिवर्द्धक है। इसका धूड़ा ( श्रवचूर्णन) शोथविलीन कर्त्ता एवं वेदनाहर है। बु मुः। नव्यमत डीमक - मुखगत पिच्छिलास्वाद के अपरयार्थ देशी लोग इसे मुख में रखकर चात्रते हैं। यह पुष्ट के कतिपय उन पाक आदि में भी पड़ता है। जिन्हें स्त्री गण प्रसवोत्तर - कालोन निर्बलता के कचूर निवारणार्थ सेवन करती हैं। सर्दी में इसके काढ़े में दालचीनी और पीपल का चूर्ण और शहद मिलाकर सेवन करते हैं। शरीर पर इसकी पिसी हुई जड़ का लेप करते हैं। रीडी (Rheede) एतजात श्वेतसार की बहुत प्रशंसा करते हैं और कहते हैं कि इसकी ताजी जड़ शीतल और - मूत्रत ख्याल को जाती है और यह श्वेत प्रदर एवं श्रौपसर्गिक मेहजात प्रत्राव को अवरुद्ध करता और रक को शुद्ध करता है । इसकी पत्तियों का स्वरस जलोदर रोग में दिया जाता है | - फार्माकोग्राफिया इंडिका ३ भ० । कर्नल बी० डी० - इसकी जड़ सुगंधित ( aromatic ), उत्तेजक और श्राध्मानहर है देशी चिकित्सा में श्रामाशय बलप्रद - जठरग्निवर्द्धक (Stomachic ) रूप से इसका व्यवहार होता है। चोट एवं मोच ( bruises & sprains ) आदि पर भी इसका प्रयोग होता है । ई० मे० प्लां ) नादकर्णी - इसकी जड़ प्रिय एवं कर्पूर-गंधि होती है । यह श्रजीर्ण तथा आध्मान में उपयोगी है और रेचनौषधों के मरोड़ आदि दोषों के निवारगार्थ इसका उपयोग होता है । मुखगत पिच्छि लता को दूर करने के लिये भारतीय प्रधानतः गायकगण कंठ-शुद्धयर्थ वा श्रावाज़ खोलने के लिये साधारणतया इसका उपयोग करते हैं । कंठ जोन और वायु नलिका के ऊर्व भाग के प्रदाह में भी इसका उपयोग कहते हैं। सर्दी और बुखार में इसके काढ़े में दालचीनी, मुलेठी और पिप्पलीइनके चूर्ण का मात्रानुसार प्रक्षेप देकर घोर मधु वानी मिलाकर इसलिये देते हैं कि उक्त रोग जन्य कास ( Bronchitis और कफ ( Cougb ) प्रशमित हो जाय। इसकी पिसी हुई जड़ का शरीर पर प्रलेप करते हैं और इसमें फिटकरी मिलाकर चोट ( bruises ) पर लगाते हैं । स्निग्धता संपादक ( Demulcent ), श्लेष्वा निस्सारक ( Expectorant ) और सुरक्षित गुणों के लिए इसकी एक ड्राम की मात्रा है। शुद्ध एवं विकृत रक्त के कारण जो चिरकाला ,
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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