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________________ कोल १८९५ कहोलकी पिप्पली वर्ग एवं कफनाशक है, तथा मुख की जड़ता, वात रोग, (N. 0. Piperaceae) हृद्रोग, कृमि, अन्धता, मुख की दुर्गन्धता और उत्पत्तिस्थान-भारतवर्ष में हिमालय पर्वत श्रादि । मंदाग्नि को नाश करता है। बड़े कंकाल के गुण तथा सुमात्रा जावा प्रभृति टापू । इसीके समान जानना चाहिये। गुण-धर्म तथा प्रयोग यूनानी मतानुसारआयुर्वेदीय मतानुसार प्रकृति-उष्ण और रूक्ष ।रंग-भूरा । स्वादकङ्कोलं कटुतितोष्णं वक्त्रवरस्यनाशनम् । कटुतिक । हानिकर्ता-उष्ण प्रकृति को और मुखजाड्यहरं रुच्यं वातश्लेष्महरं परम् ॥ शरीर को कृश करता है । दपंधन-पीली हड़ वा (ध०नि०चन्दनादि-३१०) शीतल पदार्थ । प्रतिनिधि-पीपल तथा काली कंकाल चरपरा, कडवा, उष्णवीर्य तथा मख मिर्च। मात्रा–२-३ रत्ती से १ मा० तक। की विरसता दूर करनेवाला है एवं यह मुख की गुण, कर्म, प्रयोग-यह उष्ण एवं क्षुधाजड़ता को नष्ट करनेवाला, रुचिकारक और अत्यंत जनक है तथा हृद्रोगनाशक और वातकफ के वातकफनाशक है। विकार दूर करता है। ता० श. | ना. मु.। कङ्कोलं कटुतिक्तोष्णं वक्त्रजाड यहरंपरम् । मख़्ज़न मुफरिदात में इसे ग्राही-काबिज भी दीपनं पाचनं रुच्यं कफवातनिकृन्ननम् ॥ लिखा है। (रा०नि० १२ व०) यह सूजन को उतारनेवाला, आध्मानहर, कंकाल कटु, तिक्त, उषण, मुख की जड़ता को पाचक, प्रामाशय बलप्रद और कफरोग नाशंक है। नष्ट करनेवाला, अग्निवर्द्धक पाचक, रुचिजनक यह प्रायः सरदी के रोगों को लाभकारी, अतिसारएवं कफवात विनाशक है। हर तथा ग्राही भी है और शीतल प्रकृतिवालों के कङ्कोलं लघु तीक्ष्णोष्णं तिक्तं हृद्य रुचिप्रदं । लिये वाजीकरण है। -बु. मु.। आस्य दौर्गन्ध्य हृद्रोग कफवातामयाऽऽन्ध्यहृत्।। यह भूख बढ़ाता, श्राहार पाचन करता और (भावप्रकाश पू० १ भ०) आमाशय को बलप्रदान करता है तथा कफ एवं कंकोल लघु, तीक्ष्ण, उष्ण, तिक्क, (चरपरा) वात व्याधियों को दूर करता, उत्क्रेश वा मिचली हृद्य, रुचिप्रद, मुखदौर्गन्ध्यहर, हृद्रोगनाशक, का निवारण करता और मूत्र एवं प्रात्तव का कफवातहर एवं अन्धतादि-चक्षुदोषनाशक है। प्रवर्तन करता है। यह कफज एवं मित्र ज्वरों को "कक्कोल: कटुको हृद्यः सुगंधि: कफवातजित् ।” लाभ पहुंचाता है । हिन्दी को किताब में लिखा (राज० अनुलेप) है कि कंकोल शनिप्रद है। इसका चूर्ण फाँकने से कंकाल कटुक-चरपरा, हृद्य, सुगंधित और उदराध्मान नष्ट होता है । इसके चूसने से खाँसो कफ एवं वात को जीतनेवाला है। का जोर मिटता है। गरम मसाले का यह उत्कृष्ट कैकोलं कटुकं तिक्तमुष्णं दीपनपाचकम् । उपादान है। मिश्री के साथ इसको चूर्ण की फंकी देने से मूत्रावरोध दर होता है। खा रुच्यं सुगन्धि हृद्य च लघु च कफनाशकम्।। कोलकी, कङ्कोलतिक्ता-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] मुखजाड यं वातरोगं हृद्रोगं च कृमींस्तथा । कङ्कोल का पौधा । पश्चिम देश में इसे कड़वी अन्धत्वं मुखदौर्गन्ध्यमामं चैवाग्निमांद्यकम्।। कङ्कोली कहते हैं। वैद्यकनिघंटु में इसे तिक,ग्राही, नाशये दति च प्रोक्तमृषिभिः सूक्ष्मदर्शिभिः । उष्ण, रुचिकारक, मलविवंधकारक, पित्तकारक एतेगुणास्तु सुवृहत्कंकोलस्य समीरिताः ॥ और अग्निदीपक तथा कफ, प्रमेह, कोढ़ और कंकाल-चरपरा, कड़वा,गरम, दीपन, पाचन, । जंतुओं का नाश करनेवाला लिखा है। वि० दे० रुचिकारी, सुगंधि, हृदय को हितकारी, हलका, | "कङ्कोल"।
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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