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________________ १८६१ कोल रसरत्नसमुच्चय के मतानुसार कंकुष्ठ रस में तीखा, कड़वा, उष्णवीर्य, तीव्ररेचक और व्रण, उदावर्त, शूल, गुल्न, प्लोहा वृद्धि और अर्श का नाश करनेवाला है । एक जौ के बराबर सेवन करने से यह मलावरोध को दूर करता है । इसका विरेचन देने से ग्रामवर का शोघ्र नाश होता है। यदि इसके अधिक उपयोग से उपद्रव हो, तो बबूल को जड़ के क्वाथ में जीरा और टंकण क्षार (सुहागा ) देने से उपद्रव को शांति होती है। अन्य मत यह समस्त त्वग् रोगों, जैसे कुष्ठादि को लाभकारी है और चित्र एवं दद को मिटाता है तथा भूत बाधाओं-अमराज़ शैतानी को दूर करता है। (ख० अ०) कङ्कष-संज्ञा पु० [सं० पु.] अाभ्यन्तर देह । शरीर का आभ्यन्तर प्रदेश । देह का भीतरी भाग । कङ्कर-संज्ञा पुं॰ [ देश० ] एक पौधा । ककेरु-संज्ञा पु[सं० पुं०](१)एक प्रकार का कौश्रा । (२) बगला । वक पक्षी । त्रिका० । कङ्केल-संज्ञा पु० [सं० पु.] अशोक का पेड़ । ___हला।रा. नि. व. १०। त्रिका । कङ्केलि-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] अशोक का पेड़। ककेल-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] बथुश्रा। वास्तूक शाक । श० मा० । कङ्केल्लि-संज्ञा० पु० [सं० पु.] अशोक का पेड़ । हे. च । नोट-अमर ने इस शब्द को स्त्रीलिङ्ग माना है। कङ्कोल, कङ्कोलक-संज्ञा पु० [सं० क्ली: ] (१) एक प्रकार की कबाबचीनी की बेल जिसके फल कबाबचीनी से बड़े और कड़े होते हैं। इसके वृक्ष में एक प्रकार का रालवत् गोंद निकलता है। कोलकी । कोलतिका। (२) एक प्रकार का गोल दाना जो प्राकृति में कालीमिर्च के सदृश, पर उससे अपेक्षाकृत बृहत्ता एवं श्यामता में उससे न्यूनतर होता है ।इसो हेतु इसे 'कंकाल मिर्च' वा 'मिर्च कंकाल' भी कहते हैं । शोतलचोनो ओर इसमें यह अंतर होता | है कि इसका बक्कल शीतलचीनी के बक्कल को अपेक्षा स्थूलतर होता है । कबाबचीनी का छिलका इसकी अपेक्षा पतला होता है । फल भी इसका शोतलचोनो से बड़ा और कड़ा होता है। अस्तु, यह दोनों एक पदार्थ नहीं, जैसा कि बहुशः लेखकों ने लिखा है; प्रत्युत यह एक ही वर्ग के दो पृथक् पौधे के फल हैं। ककोल को टीका में प्रायः सभी ग्रन्थों में इसका शीतलचीनी अर्थ किया गया प्रतीत होता है । अस्तु, भावप्रकाश में भी कंकाल को शीतलचीनी का पर्याय स्वीकार किया गया है। इसो प्रकार वनौषधिदर्पण और अनुभूत चिकि सासागर प्रभृति ग्रन्थों में जो उन दोनों को समानार्थी माना है, वह भ्रमात्मक है। डिमक ने जो यह लिखा है, कि 'राजनिघंटु' में जिसे लिखे अाज लगभग ६०० वर्ष हो रहे हैं, कंकाल नाम से कबाबचीनी का उल्लेख मिलता है, वह भी भ्रम पूर्ण ही है। इनके भ्रमपूर्ण होने का कारण मैंने ऊपर बतला दिया है। अभल, समतुल् अरअर और तुह्मसरोकोही किसी किसीके मत से यही है और दूसरों के मत से हाऊबेर है। कतिपय यूनानी ग्रन्थों में प्रमादवश यह लिखा है कि यह पीपल के बराबर वा पीपलवत् एक दाना है । वस्तुतः यह पीपलवत् लंबा नहीं,वरन् कालीमिर्चवत् गोलाकार एक प्रकारका दाना है। कंकाल के फलों में महक होती है। ये दवाके काम में आते हैं और तैल के मसालों में पड़ते हैं। वि० दे० "कबाबचीनी"। . पर्याय-ककोलः, कङ्कोलकं, कृतफलं, कोलकं, कटुकं, फलं, चूर्ण, कंदफलं, द्वीपं मारीचं, माधवोचितं (ध. नि०), विद्वष्यं, स्थूलमरिचं, कंकोलं, माधवोचितं, कट फलं, मारीचं, रुद्रसंमितम् (रा. नि०) ककोलं, कोलकं, कोशफलं (भा०),कक्कोलः (राज.) कोश (प) फलं. कोलकं, फलं, (अ) कोरकं, ( मे०) काकोलं, गन्धव्याकुलं, तैलसाधनं (श०) कटुककोलं ( मदनपाल )कटुकफल,द्वयं स्थूलमरिचं, कक्कोलं, काल, मरिच, कोल, मारिच, मागधोषित, द्वोपसंभव,सुगन्धिफल-सं०। कंकाल कंकाल दाना, कंकालफल, कंकाल मरिच, कंकाल मिर्च, मिर्च कंकाल-हिं । काँकला-बं ।
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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