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________________ ककोड़ा दक्षिण भारत, कनाडा, कोचबिहार राज्य में सर्वत्र और रंगपुर के श्रंचल में तथा इसी तरह हिन्दुस्तान के प्रायः सभी भागों में यह प्रचुर मात्रा में उपजता है और इसके फल भारतीय बाज़ारों में विक्रीत होते हैं । १८८३ रासायनिक संघटन - छिलका उतारे हुये बीज में एक प्रकार का कुछ-कुछ हरे रंग का तेल ४३.७% और एक तिक ग्ल्युकोसाइड होता है। तेल अत्यन्त प्रबल शोषण ( Siccative ) विशिष्ट होता है। औषधार्थ व्यवहार - बीज फल और कन्द श्रदि । गुणधर्म तथा प्रयोग आयुर्वेदीय मतानुसार कर्कोटकी युगं तिक्कं हन्ति श्लेष्मविषद्वयम् । मधुना च शिरोरोगे कन्दस्तस्याः प्रशस्यते ॥ ( ध० नि० ) दोनों प्रकार का ककोड़ा - कड़ा होता है श्रौर श्लेष्मा एवं स्थावर तथा जंगम दोनों प्रकार के विषों का नाश करता । शिरोरोग में शहद के साथ इसके कन्द का सेवन गुणकारी होता है । कर्कोटकी कटूणाच तिक्त विषनाशनी । वातघ्नी पित्तहृच्चैव दीपनी रुचिकारिणी ॥ ( रा०नि० ७ व० ) ककोड़ा ( ककोटकी ) — तिक्र, चरपरा, गरम, विषनाशक, वातनाशक, पित्तनाशक, दीपन और रुचिजनक है । कर्कोटकं फलं ज्ञेयं कारवेल्ल कवद् गुणैः । ( राज० ३ प० ) ककोड़ा (फल) – गुण में करेला के समान है । कर्कोटकं त्रिदाषघ्नं रुचिकृन्मधुरं तथा । ( श्रत्रि० १६ श्र० ) ककोड़ा (ककटक) - त्रिदोष नाशक, रुचिकारक और मीठा होता है । कर्कोटकी मलहृत्कुष्ठ हृल्लासारुचिनाशिनी । कास श्वास ज्वरान्हन्ति कटुपाका च दीपनी ॥ ( भा० ) ककोड़ा - मल को हरनेवाला और कुष्ठ हल्लास रुचि, श्वास, खाँसी तथा ज्वरको दूर करनेवाला, कटुपाकी और दीपन है । Chie कर्कोटकी रुचिकरा कवीचाग्नि प्रदीपनी । तिक्तोष्णा वातकफहद्विषं पित्तं विनाशयेत् ॥ फलमस्यास्तु मधुरं लघु पाके कटु स्मृतम् । अग्निदीप्तिकरं गुल्मूल पित्त त्रिदोषनुत् ॥ कफकुष्ठ कासमेह श्वास ज्वर किलासनुत् । लालास्रावारुचिर्वात किलास हृदयव्यथाः ॥ नाशयेत्पर्णमस्याश्च रुच्यं वृष्यं त्रिदोषनुत् । कृमि ज्वर क्षय श्वासकास हिक्कार्शनाशनम् ॥ कन्दोमाक्षिक संयुक्तः शीर्षरोगे प्रशस्यते । (नि० २० ) ककोडा – रुचिकारक, कटु, अग्निप्रदीपक, तिक, गरम, तथा वात, कफ, विष एवं पित्त का नाश करता है। इसका फल - मधुर, लघु, पाकमें चरपरा, श्रग्निप्रदीपक तथा गुल्म, शूल, पित्त, त्रिदोष, कफ, कुष्ठ, कास, प्रमेह, श्वास, ज्वर, किलास, लालास्राव, श्ररुचि, वात और हृदय की पीड़ा को दूर करता है । इसका पत्ता - रुचिकारक, वृष्य, त्रिदोष नाशक तथा कृमि ज्वर, क्षय, श्वास, कास, हिचकी श्रौर बवासीर को दूर करनेवाला है । इसका कन्द-मधु के साथ मस्तिष्क के रोगों में हितकारी है । कर्कोटपत्र - वमन में हितकारी है । ( वा० ज्वर चि० १ ० ) कर्कोटमूल - ककोड़े की जड़ का नस्य दिया जाता है । ( च० द० पाण्डु-चि०) कर्कोटिका -- कन्दरज ( खेकसा को जड़ का चूर्ण) ( भा० म० १ भ० शीतलाङ्ग, सा० ज्व-चि०) यूनानी मतानुसार प्रकृति - समशीतोष्णानुप्रवृत्त, पर किसी भाँति तर वा स्निग्ध ( मतान्तर से शीतल किसी-किसी के समीप उष्ण ) है । हानिकर्त्ता --- -- श्राध्मानकारक और दीर्घपाकी है। दर्पन - गरम मसाला और श्रादी | गुण, कर्म, प्रयोग - गुण में यह करेला के समान है और अपने प्रभाव से यौवनपिड़का वा मुँहासे को दूर करता है तथा कफ, रक्तपित और रुचि को दूर करता है । ( ता० श० ) यह फोड़े और फुन्सियों को लाभकारी है तथा सूजन उतारता है । (म० मु० )
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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