SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 134
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ औषधी पश्चामृत १८६६ आठ प्रकार का होता है । यथा-शीत, उष्ण, रूत, स्निग्ध, तीच्ण वा तीव्र, मृदु, पिच्छिल और विशद । श्रौषधि वीर्य बल एवं गुण के उत्कर्ष से रस को दबा अपना काम करता है । सु० सू० ४० श्र० । सूर्य और चंद्रमा के कारण जगत के श्रग्नि और सोमीयत्व गुण से किसी-किसी ने वीर्य दो ही प्रकार का माना है अर्थात् उष्ण और शीत । औषधी पञ्चामृत-संज्ञा पु ं० [सं० क्ली](१) अमृत जैसी इन पाँच श्रौषधियों का समूह - गुरुच, गोखरू, मुसली, मुण्डी और सतावर । (क) - संज्ञा पुं० [सं० क्ली] ( १ ) एक प्रकार काकां । ( २ ) पांशु लवण । शोरा (३) छुटिया नोन । रेह का नमक । मृत्तिका लवण | खारी नमक । पर्याय- श्रौषरक | सर्व गुण । सर्व्वरस | सर्व संसगं लवण । ऊषरज । ऊषरक । साम्भर । बहुलवण । मेलक लवण | मिश्रक । ( ४ ) सैंधा नमक । सैंधव लवण । ( ५ ) ऊपरदेषज लवण | गुण — बार, तिल, विदाही, मूत्रसंशोषकारक ग्राही, पित्तकारक और वात-कफ नाशक है । (रा० नि० ० ६) । ( ६ ) क्षार । मद० ० २ । औषधीपति-संज्ञा पु ं० [सं० ० ] श्रौषधी का राजा सोम । औषधीय - वि० [सं० त्रि० ] श्रौषधि संबन्धी जड़ी बूटी का । दवा का । औषस - वि० [सं० त्रि० ] ( १ ) उषाकालोत्पन्न | जो सवेरे पैदा हो। (२) उषासम्बन्धीय । सहरी । सिदोसी । औषसिक - वि० सहरी । सिदौसी । [सं० त्रि० ] उषा सम्बन्धीय श्रष्णिज वि० [सं० क्रि० ] ऊँट का । ऊँट सम्बन्धी । औष्ट्रक -संज्ञा पु ं० [सं० की ० ] ऊँटों का समूह औष्ट्रतक्र -संज्ञा पु ं० [सं० नी० ऊँटनी के का दूध औषिक - वि० [सं० पै शमन्द । औष्ट्र - संज्ञा पुं० [सं० क० ] ऊँटनी का दूध श्रादि । मट्ठा । गुण - ऊँट का मट्ठा दोषकारक है तथा पीनस, में हितकारी कहा गया है “ऊँट” । • फीका, भारी, हृद्य और श्वास एवं कास रोग 1 । वै० निघ० । दे० श्रष्ट्रनवनीत-संज्ञा पुं० [सं०ली० ] ऊँटनी का मक्खन | ऊँटनी के दूध से निकाला हुआ। नैनू । गुण - लघुपाकी, शीतल, व्रण, कृमि, कफ तथा रक्त के दोष का नाशकरनेवाला, वातनाशक और विषनाशक है। रा० नि० व० १५ । औष्ट्रमूत्र-संज्ञा पुं० [सं० नी० ] ऊँट का पेशाब | उष्ट्रमूत्र । गुण — उन्माद, सूजन, बवासीर, कृमि और उदरशूल नाशक । मद० ० ८ । में औष्ट्र्क्षीर-संज्ञा : ० [सं० नी० ] ऊँटनी का दूध । उष्ट्रदुग्ध । दे० "ॐ" । औष्ट्राय - संज्ञा पुं० [सं० पु० ] उष्ट्रवंशीय | श्रष्ट्राति-संज्ञा पुं० [सं० पु० ] गुरु । उस्ताद | शिक्षक | औष्ट्रिक - वि० [सं० त्रि० ] ऊँट से पैदा । उष्ट्रजा । औष्ट्रीघृत-संज्ञा पु ं० [सं० क्ली० ] ऊँटनी का घी | उष्ट्रीनवनीतज घृत | गुण-पाक मधुर, कटु, शीतल, कृमि और कोढ़ नाशक तथा वात, रोग का नाश करनेवाला है। औष्ठ - वि० [सं० त्रि० ] श्रोष्ठ के होंठ जैसा बना हुआ । औष्ठ्य - वि० [सं० त्रि० ] ओंठ से सम्बन्धी | होंठ का । निकला | होंठ औष्ण - संज्ञा पुं० [सं० ली० ] ( १ ) उष्णता । गरमी । (२) उत्ताप | धूप । ( ३ ) सन्ताप | बुखार | त्रि० ] उषाकालोत्पन्न । । ( २ ) उपाकाल को भ्रमण करनेवाला । जो प्रातःकाल निकल कर टहलता है। षि (षी) - वि० [सं० त्रि० ] इच्छुक | ख़ाहि श्रष्णिज - संज्ञा पुं० [सं० क्री० ] ( १ ) पगड़ी | साना । वि० [सं० क्रि० ] पगड़ी से सम्बन्ध रखने वाला । कफ एवं गुल्मोदर रा० नि० व० १५ । श्राकार सदृश ।
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy