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________________ औषध प्रमाण १९६५ औषधि वीर्य अब इससे आगे सुश्रुत के कलिंगीयमान की | मान सरल है, विज्ञ वैद्य स्वयं विचार कर निष्कर्ष अाधुनिक मान से तुलना का विवेचन श्रारंभ होता प्राप्त कर सकते हैं। "अश्विनीकुमार से उद्धृत" । है । यथा-सु० चि० ३१ अ० में नोट-अन्य यूनानी एवं डाक्टरी (एलोपैथी) १२ धान्यमाष(मध्यम प्राकार के उर्द)-१ सुवर्णमाष मानों के लिए देखें "मान"। १६ सुवर्णमाष=१ कर्ष औषधालय-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] वह स्थान जहाँ ४ कर्ष=१ पल नाना विध औषध सदा विक्रयार्थ प्रस्तुत रहे । - इससे यह सिद्ध होता है,कि सुश्रुत के कलिंगीय | ___ ओषध भाण्डार । औषध गृह । दवाखाना । कर्षमान में १९२उर्द होते हैं । प्रथम यह चक्रपाणि | औषधि, औषधी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] (१) के मतानुसार स्पष्ट हो चुका है कि १२ मध्यमाकार गुरुच । गुड़ ची। (२) रास्ना । (३) दूब । उर्द=५ बड़ी रत्ती के बराबरहोतेहैं (यह भी तौल कर (४) सफ़ेद दूब। (५) हड़। हरीतकी। ठीक देखा गया है) तो १६२ उर्द ८० बड़ी रत्तियों (६) मद्य । शराब । (७) औषध । दवा । के बराबर होते हैं । यथा-५४१६-८० बड़ी रत्ना०। (८) फलपाकान्त-वृक्ष प्रादि । श्रोषधि । गुना और ६० बड़ी गुञ्जाएँ १ तोला के बराबर हे. च० । (६) सम्यक् ओषधि । अच्छी जड़ी बूटी। होती हैं । यह पीछे स्पष्ट हो चुका है, इस प्रकार औषधिगन्ध-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] सूघने से ज्वसुश्रत का कर्ष ठीक १ तोला का तथा पल ४ तो. ही बैठता है। रादि उत्पन्न करनेवाली औषध की गंध । जिस जड़ी-बूटी की खुशबू से बुखार वगैरः बीमारी इसमें भी पूर्ववत् + भाग जोड़ देने से सुश्रुत लग जाय । च० द. ज्वरातिसार-चि०। का पल १ छटाँक हो जाता है। इस प्रकार सब औषधिगन्धज्वर-संज्ञा पुं० [सं० पु.] एक मानों की समता हो गई। प्रकार का ज्वर जो तोव ओषध के सूंघने से होता अब आगे स्पष्टीकरणार्थ सब मानों की संक्षिप्त है। इसमें मूर्छा, सिर-दर्द, वमन और छींक-ये तालिका दी जाती है लक्षण होते हैं। किसी-किसी ने छींक की जगह हिचकी का चलना लिखा है। वस्तुतः यह ज्वर शाङ्गधर वा सुश्रुत चरकीयमाना- के मानानुसार (हमारा हल)। दुर्गन्धित पदार्थोकी गंधसे होता है । वैद्यकके मत से इसमें "सर्वगंध का काढ़ा" पिलाना और नुसार (चरक से विल- भाग बढ़ाकर "अष्टगंध की धूनो" देना उपकारी है। कुल आधा) औषधि प्रतिनिधि-संज्ञा स्त्री० [सं० पु.] किसी कर्ष-२ तो० १ तो० तोव्या२ तो० औषधि के बदले दूसरी औषधि का ग्रहण । किसी औषधि के न मिलने पर उसके समान गुणधर्म पल- तो० ४ तो० ५ तो०-या । १० तो. की अन्य औषधि का लेना। द्रव्यांतर ग्रहण । २० तो० ,या बदल । प्रतिनिधि लेने के लिये शास्त्र की आज्ञा ४० तो० ॥ है । जैसे, यदि चीता न मिले तो दंती लेना चाहिये, दंती न मिले, तो चीता लेना चाहिए। पर इस माणिका-६४तो० ४० तो० आया बात का ध्यान रहे कि, योग की प्रधान औषधि ८० तो०७१ के बदले प्रतिनिधि या बदल न लिया जाय । प्रस्थ-१२८ तो० ६४ तो. ८० तो०७१ या नोट-प्रत्येक ओषधि को प्रतिनिधि हर १६० तो०७२ औषधि के वर्णन के साथ दी गई है । अस्तु, वहाँ नोट-इस प्रकार द्विगुण होने पर भी अनुपात ( Ratio) में कोई भेद नही पड़ता, चाहे औषधि वीर्य-संज्ञा पुं० [सं० क्री० ] शीतोष्ण आदि योगस्थ द्रव्यमान द्विगुण हो जाय । इससे आगे रूप औषधि का वीर्य । औषधि की ताकत। यह १६ फा. कुडव-३२ तो १६ तो० ३२ तो० देखें।
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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