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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ उत्तरार्धम् ] 'समय' है ? ( न भवइ) नहीं, (क· हा?) क्यों ? ( जन्हा अणंताणं संधायाणं समुदय समितिसमागमेणं समुदाय समिति समागम गेहं निज) इसलिये कि अनन्त संघातों के से एक 'पक्ष्म' उत्पन्न होता है. (रिल्ले संवाए विदाइ डिल्ले संघाए न वि संघाइज्जइ) ऊपर के संघात के विसंघटित हुए विना नीचे का संघात विसंघटित नहीं होता । (अंति काले उनरिल्ले संवाए त्रिसंघ इजड ) ऊपर का अन्य काल में संघात विसंघटित होता है, और (मि काले हिट्टिले विसंवा विसंवाइजह) नीचे का संचात अन्य काल में विसंघटित होता है । (तम्हा से समए न भवः) इसलिये वह 'समय' नहीं है, किन्तु (एतो वि 1 सुहुमतराए समए पण्णत्ते, समाउसो !) हे श्रमरणायुष्मन् ! इस ऊपर के पक्ष्म के छेदन काल से भो सूक्ष्मतर 'समय' प्रतिपादन किया गया है । (तखिजाणं समयाणं समुदयसामेतिसमागमें) अपितु फिर असख्यात समयों के समुदाय समिति और समागम (सावलिति) वह एक अवलिक का कही जाती है, फिर ( संखेजाओ आलिया ऊनास) संख्यात श्रावलिकाओं का एक उश्वास और (संबजाय यावलियाश्रनीसासी) संख्यात वलिकाओं का एक विश्वास होता है, अर्थात् संख्यात श्रावलिकाओं के मिलने से एक उच्छास निश्वास होता है, नाभि से ऊर्द्ध गमन को उच्छवास ओर अधोगमन को निश्वास कहते हैं, फिर (हस गत्तस्स) हृष्ट (हर्षं) वंत और जरा से रहित और (निरुपस जंतु।) व्याधि से भी रहित ऐसे पुरुष के ( एगे ऊसासनीसासे एस पाणुति बुच्च ॥ १ ॥ ) एक उश्वास निश्वास के काल को प्राण कहा जाता है अर्थात् जो हर्पन्त शोक रहित पुरुष है उसके एक श्वासोच्छ्रास को प्रारण कहते हैं, और (सत्तपाग्यूणि से धोवे) और उन सप्त प्रारणों का एक स्तोक, (सत्त थोवाणि से लत्रे) और ७ स्तोकों का एक लव होता है । (लवाणं सत्तइत्तरिए) और ७७ लवों का एस मुहुत्ते वियाहि ) यह मुहूर्त कहा गया है ॥ २ ॥ For Private and Personal Use Only ६५ मुहूर्त काल के उच्छ्रासों का विवरण करते हैं । ( तिथि सहस्सा सत्त य साई ) तीन सहस्र सात सौ (तेहुतरे च ऊसासा ) | और ७३ उच्छ्रासों का ( एस मुहुत्तो * लेकिन इस कथन से अनन्त पचमणों के छेदन में अनन्त समय न जानना चाहिये किन्तु इसमें असंख्यात समय ही होते हैं। क्योंकि आगम में कहा गया है कि - " असंखेज्जासु भंते ! उस्सप्पिणिवसप्पिणीसु केवईया समया पण्णत्ता ? गोयमा ! असंखेज्जा; अतासु णं भंते ! उस्सपिणिवसप्पिणी केवईया समया पण्णत्ता ? गोयमा अता" अनन्त उत्सर्पिणियों के अनन्त समय होते हैं और असंख्यात उत्सर्पिणियों के असंख्यात सयय होते हैं ।
SR No.020052
Book TitleAnuyogdwar Sutram Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherMurarilalji Charndasji Jain
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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