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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org [ उत्तरार्धम् ] २४३ सयाईं ठाणाई ) मध्यम स्थान हैं (जाव) यावत् (उक्कोसयं) उत्कृष्ट ( जुत्तासंखिज्ज :) युक्तासंख्येयक को ( न पावइ ।) नहीं प्राप्त होता । (उक्कोसयं जुत्तासंखेज्जयं) उत्कृष्ट युक्तासंख्येयक (केवइ होइ ?) कितना होता है ? ( जहणणं जुत्तासंखेज्जए ) जघन्य युक्तासंख्येयक से ( श्रवलिया ) आवलिका को ( गुणिश्रा श्रण्णमण्णब्भासां ) परस्पर गुणा करने से ( रूवृणो ) एक न्यून (उकोसयं जुत्तासंखेज्जयं) उत्कृष्ट युक्तासंख्येयक ( होइ,) होता है । (हवा जहरणयं ) अथवा जघन्य ( श्रसंखेज्जासंखेज्जयं ) असंख्येयासंख्येयक का ( रूवूर्ण ) एक न्यून ( उक्कोसय ं उत्कृष्ट (जुत्तासंखेज्जयं) युक्तासंख्येयक (होइ ।) होता है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( जहण्णयं श्रसंखेज्जासंखेज्जयं ) जघन्य असंख्येया संख्येयक (केवइयं होइ ?) कितना होता है ? (जहणणं जुधासंखेज्जए णं) जघन्य युक्तासंख्येयक के साथ (श्रावलिश्रा ) आवलिका की राशि को (गुणिश्रा । श्ररणमरण भासो) परस्पर गुणा करने से (पढिपुरणो ) परिपूर्ण ( जहण्ण्यं श्रसंखेज्जासंखेज्जयं ) जघन्य असंख्येयासंख्येयक ( होइ, ) होत है, (हवा) अथवा ( उक्कोस जुत्तासंखेज्जए ) उत्कृष्ट युक्तता संख्येयक में ( रूवं पक्खित्तं) रूप प्रक्षेप करने - जोड़ने से (जहरणयं श्रसंखेज्जासंखेज्जयं) जघन्य असंख्येया संख्येयक ( होइ ) होता है, (ते परं ) तत्पश्चात् ( अजहरणमणुकोसयाई ठाणाई ) मध्यम स्थान हैं (जान) यावत् ( उक्कोसयं श्रसंखेज्जासंखेज्जयं ) उत्कृष्ट असंख्येयासंख्येयक को ( पावइ ।) नहीं प्राप्त होता । (उक्कोसयं असं खेज्जासंखेज्जयं) उत्कृष्ट असंख्येया संख्येयक (केवइ होइ ? ) कितना होता है ? (जयं । श्रसंखेज्जासंखेज्जयमेत्ताणं रासीणं ) जघन्य असंख्येयासंख्येयक मात्र राशि को ( मरणभासो) उसी के साथ परस्पर गुणा करने से (रूवूगी) एक न्यून ( उक्कोसयं श्रसंखेज्जासं खेज्जयं) उत्कृष्ट असंख्येया संख्येयक (होइ, होता है, (हवा) अथवा (रूवूणं) एक न्यून ( जरणयं परित्ताणंतयं) जघन्य परीतानन्तक (उक्कोसयं श्रसंखेनासंखेज्जयं) उत्कृष्ट * असंख्येयासंख्येयक ( होइ ।) होता है । * श्रन्ये त्वाचार्या उत्कृष्टम संख्येया संख्येयकमन्यथा प्ररूपयन्ति, तथाहि-- जघन्यासंख्येयासंख्येयक शेर्वगः क्रियते, तस्यापि वर्गराशेः पुनर्वंग विधीयते, तस्यापि वर्गवर्गराशेः पुनरपि वर्गों निष्पद्यते, एवं च वारत्रयं वर्गे कृते ऽन्ये ऽपि प्रत्येकम संख्येयस्वरूपा दश राशयस्तत्र मक्षिष्यन्ते, तयथा "लोगागासपरसा, धम्माधम्मेगजीवदेसा य । दव्वट्टिमा निश्रो, पत्या चेत्र बोद्धव्वा ॥ १ ॥ oriधवसाणा, अणुभागा जोगच्छ अपलिभागा । For Private and Personal Use Only
SR No.020052
Book TitleAnuyogdwar Sutram Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherMurarilalji Charndasji Jain
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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