SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 211
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०६ [श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] अस्माहिगारजाणो) प्रस्थक के अधिकार का जो ज्ञात होता है ( जस्स वा वसेणं) अथवा जिसके लक्ष्य से ( पत्थश्रो निप्फजइ, ) प्रस्थक निष्पन्न होता है, (से तं पत्थयदिट्टतेए । ) यही प्रस्थक का दृष्टान्त हैं। भावार्थ-जिन अनन्त धर्मात्मक वस्तुओं के स्वरूप को एक ही अंशद्वारा निरूपण किया जाय उसे नय प्रमाण कहते हैं। उनके सात भेद हैं, जैसे किनैगम १, संग्रह २, व्यवहार ३, ऋजुसूत्र ४, शब्द ५, समभिरूढ ६, और एवं भूत ७। अथवा नय तीन प्रकार से प्रतिपादन किया गया है-प्रख्यक के दृष्टान्त से १, घसति के दृष्टान्त से २, और प्रदेशों के दृष्टान्त से ३ । प्रस्थक का दृष्टांत निम्न प्रकार जानना चाहिये जैसे कि-कोई पुरुष परशु हाथ में लेकर बन में जा रहा था, उसको देख कर किसी ने पूछा कि-श्रोप कहां पर जाते हैं ? तब उसने कहा कि-'प्रस्थक के लिये जाता हूँ। उसका ऐसा कहना अविशुद्ध नैगम नयाभिप्राय से है, क्यों कि भी तो उसके विचार ही उत्पन्न हुए हैं। तदनन्तर किसी ने उसको काष्ट छीलते हुए देख कर पूछा कि-आप क्या छीलते हैं ? तब उसने उत्तर दिया कि प्रस्थक को छीलता हूँ। यह विशुद्ध नैगम नय का वचन है क्योंकि पहिले के बनिस्वत यह कथन शुद्ध है । इसी प्रकार काष्ट को तक्षण करते हुए, उत्की. क्योंकि भावप्रधान नयों में उपयोग ही मुख्य लक्षण है, और उपयोग विना प्रस्थक की उत्पत्ति नहीं होती । अतः उपयोग को ही 'प्रस्थक' कहा जाता है। कहा भी है ___'प्रस्थकार्थाधिकारज्ञः' प्रस्थकस्वरूपपरिज्ञानोपयुक्तः प्रस्थकः, भावप्रधाना ह्यते नया इत्यतो भावप्रस्थकमेवेच्छन्ति, भावश्च प्रस्थकोपयोगोऽतः स प्रस्थकः, तदुपयोगवानपि च ततो ऽव्यतिरेकात् प्रस्थकः, यो हि तत्रोपयुक्तः सोऽमीषां मते स एव भवति, उपयोगलक्षणो जीवः, उप गश्चेत् प्रस्थकादिविषयतया परिणतः किमन्यजीवस्य रूपान्तरमस्ति ? यत्र व्यपदेशान्तरं स्यादिति भावः ।' अर्थात् जीव ही प्रस्थक है, क्योंकि उपयोग से ही प्रस्थक को निष्पत्ति है, कारण कि उपयोग और प्रस्थक एक रूप होते हैं इस लिये प्रात्मा ही प्रस्थक है अन्य नहीं । लेकिन यह न जानना चाहिये कि जड़रूप में उपयोग वर्तने से आत्मा भी जड़वत हो जाय; वह तो चैतन्य-कर्ता रूप ही है, और अचेतन चेतन का आधार ही नहीं । इस लिये प्रस्थक में जिसका पयोग हो वही प्रस्थक है, अन्य नहीं । For Private and Personal Use Only
SR No.020052
Book TitleAnuyogdwar Sutram Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherMurarilalji Charndasji Jain
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy