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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ उत्तरार्धम् ] २०५ नय कहता है कि-(पत्ययं तच्छामि,) प्रस्थक को ठीक करता हूँ पश्चात् ( तं च केई ) कोई उसको (उकीरमाणं) उकिरन-बीजने से ठीक करते हुए (पासित्ता) देखकर (च एजा.) कहे कि-(किं भवं उक्कीरसि ?) आप क्या उत्कीरन करते हैं ? (विसुढतरानो णेगमो भणइ.) विशुद्धतर नैगम नय कहता है कि (पत्थयं उक्कीगमि,) प्रस्थक को उत्कीरन करता हूं, (तं च के इ) फिर कोई उसको (निहमाणं पासिता) लेखन-घड़ते हुए देख कर (वए जा-) कहे कि-(कि भवं लिहसि ? ) ओप क्या लेखन करते हैं ? ( विसुद्धतरागो रखेगमो भणइ) निशुद्धतर नैगम नय कहता है कि ( पत्थयं हि हामि, ) प्रस्थक को लेखन करता हूं, (एवं विसुद्धतरस्स णेगमस्स) इसी प्रकार विशुद्धतर नैगम नय के मत से (नामाउ डिग्रो पत्थो ,) + नामाङ्कित प्रस्थक होता है । (एवमेव ववहारस्सवि,) इसी प्रकार व्यवहार नय से भी जानना चाहिये । ( संगहस्स ) : संग्रह नय के मत से ( मिउमेजसामरूढो ) धान्य से भरा हो तभी वह पात्र (पत्थश्रो) प्रस्थक होता है (उज्जुमुयस्स) + ऋजुमूत्र से (पत्यश्री उवि पत्यश्रो ) प्रस्थक भी प्रस्थक होता है, और ( मेजपि पत्थो, ) मेय-वस्तु भी प्रस्थक रूप ही है, तथा (तिरह सहनया ) तीनों *शब्द नयों के मतसे (पत्थयस्स + अर्थात प्रथम के नैगम नय से दूसरा कथन इसी प्रकार विशुद्धतर होता हुआ नामाश्चित प्रस्थक निष्पन्न हो जाता है। क्योंकि जब प्रस्थक का नाम स्थापन कर लिया गया तभी विशुद्धतर नैगम नय से परिपूर्ण रूप प्रस्थक होता है। संग्रह नय सामान्यतया सभी पदार्थों को ग्रहण करता है इस लिये जो प्रमाण पूर्वक धान्य से भग हुआ हो और कर्य रूप में परिणित हो, तभी वह पान प्रस्थक कहा जाता है, नहीं तो घट पटादि पदार्थ भी प्रस्थक संज्ञक हो जायंगे । * क्योंकि यह नय सिर्फ वर्तमान काल को ही मानता है; भूत, भविष्यत को नहीं, इस लिये व्यवहार पक्ष में नाम रूप प्रस्थक को भी प्रस्थक और उसमें भरे हुए धान्य को भी प्रस्थक कहा जाता है। कहा भी है 'तस्य निष्पन्नस्वरूपोऽर्थक्रियाहेतुः प्रस्थकोऽपि प्रस्थकः, तत्परिच्छन्नं धान्यादिकमपि वस्तु प्रत्यकः, उभयत्र प्रस्थको ऽयमिति व्यवहारदर्शनात, तथा प्रतीतेः, अपरं चासौ पूर्वस्माद्विशुद्धत्वाद्वसमाने एव मानमेये प्रस्थकत्वेन प्रतिपद्यते, नातीतानागतकाले, तयोविनिप्टानुत्पन्नहोनासस्वादिति ।' * शब्द १, ममभिरूढ २, और एवम्भूत ३, इन तीनों को 'शब्द नय' इस लिये कहते हैं कि ये शब्द को प्रधान मानते हैं । तथा प्रथम के गर नय 'अर्थ नय? कहलाते हैं, क्यों कि इनकी अर्थ में ही मान्यता है । कहा भी है 'शब्दपधानाः नयाः शब्दनयाः-शब्दसमभिरूढेवभूताः, शब्देऽन्यथस्थितेऽधमन्यथा नेच्छम्त्यमी, किन्तु यथैव शब्दो व्यवस्थितस्तथैव शब्देनार्थं गमयन्तीत्यतः शन्दनया उच्यन्ते, श्राद्यास्तु यथाकथञ्चिच्छदाः प्रवर्तन्तामर्था एव प्रधानमित्यभ्युपगमपरत्वादर्थनयाः प्रकीर्यन्ते ।' For Private and Personal Use Only
SR No.020052
Book TitleAnuyogdwar Sutram Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherMurarilalji Charndasji Jain
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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