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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १७२ [ श्रीमदनुयोगद्वार सूत्रम् ] प्रत्यक्ष प्रमाण दो प्रकार का है, जैसे कि - इन्द्रिय प्रत्यक्ष और नो इन्द्रिय प्रत्यक्ष | जो ज्ञान इन्द्रियों के द्वारा उत्पन्न हो उसे इन्द्रिय प्रत्यक्ष कहते हैं । उस के पाँच भेद हैं, जैसे कि-शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श; इनका ज्ञान होना उसे इन्द्रिय प्रत्यक्ष कहते हैं । जो इन्द्रिय प्रत्यक्ष नहीं होता अर्थात् साक्षादात्मा ही जिस अर्थ को देखती है उसे नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष कहते हैं । इसके तीन भेद हैं, श्रवधिज्ञान, मन:पर्यवज्ञान और केवलज्ञान । इनमें केवल जीव के उपयोग रूप शक्ति की ही प्रबलता होती है, न कि उनके सहकारी भाव की इस लिये यही प्रत्यक्ष प्रमाण है । इसके बाद अनुमान प्रमाण का वर्णन किया जाता है 1 अनुमान प्रमाण । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - से किं तं अणुमा ? तिविहे पण्णत्ते, तं जहा- पुव्ववं सेसवं दिसाहम्मवं । से किं तं पुव्ववं ? For Private and Personal Use Only माया पुत्तं जहा नटुं, जुवाणं पुणरागयं । काई पच्चभिजाणेज्जा, पुव्वलिंगे केई ॥ १ ॥ तं जहाखत्ते वा वराणेण वा लंकरणेण वा मसे वा तिलए वा से तं पुव्वत्रं । से किं तं सेसवं ? पंचविहे पण्णत्त, तं जहा- कज्जेणं कारणेणं गुणेणं अवयवेां श्रासए । से किं तं कज्जेणं ? संखं सद्द े भेरिं ताडिएणं वसi dari मोरं किंकाइएणं हयं हेसिएणं गं गुलगुलाइएणं रहं घणघणाइएणं, से तं कज्जेणं | से किं तं कारणं ? तंतवो पडस्स कारणं ण पडो * 'ग' पाठान्तरम् ।
SR No.020052
Book TitleAnuyogdwar Sutram Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherMurarilalji Charndasji Jain
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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