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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६६ [श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] पदार्थ-विद्यमान पदार्थो के और वर्णादिकों के ज्ञानादि परिणाम का बोध होना उसे *भाव कहते हैं, और जिसके द्वारा पदार्थो का स्वरूप जाना जाय अथवा उनका निर्णय किया जाय वही प्रमाण है, और वह (तिविहे पएणत, तीन प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, (तं जहा- ) जैसे कि-(गुणप्पमाणे ) जिन गुणां से द्रव्यादिकों का ज्ञान हो उसे गुण प्रमाण कहते हैं, ( नयप्पमार्ग ) जिन अनन्त धर्मात्मक वस्तुओं का एक ही अंश द्वारा निर्णय किया जाय उसे नय प्रमाण कहते हैं, और (संप्रमाणे) जिसके द्वारा संख्या की जाय उसे’ संख्या प्रमाण कहते हैं । (मे किं तं गुणप्पमाणे ?) गुण प्रमाण किसे कहते हैं ? (गुणापमाणे) जिन गुणों से द्रव्यादिकों का ज्ञान हो उसे गुण प्रमाग कहते हैं । और वह (दुविहे पणानं ,) दो प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, (तं जहा.) जैसे कि-(जीवगुणप्पमाणे) जाव गुण प्रमाण ( अजीवगुण ८पमाणे ।) और अजीव गुण प्रमाण । (से कि तं अजीवगुणप्पमाणे ?) x अजीव गुण प्रमाण किसे कहते हैं और वह ६ तनी प्रकार से प्रतिपादन किया गया है ? (ग्रजीवगुणप्पमाणं) जिन गुणों के द्वारा अजीव पदार्थों की सिद्धि हो उस अजीव गुण प्रमाण कहते हैं। और वह (पंचविहे पएणते) पांच प्रकार से प्रतिपादन किया गया है. (तं जहा.) जैसे कि-(वगणगापमाणे) वर्ण गुण प्रमाण (मंथगुगागमागो) गन्ध गुण प्रमाण (रसगणप्पभाग ) रस गुण प्रमाण (फासगुणप्पनाग) म्पर्श गुण प्रमाण और ( गं गापमाग) संस्थान गुण प्रमाण । (से किं वरणगुग्गप्पमाणे ? ) वणं गुण प्रमाण किसे कहते हैं और वह कितनो प्रकार से प्रतिपादन किया गया है ? ( वागण मागे , जिन वणों के द्वारा द्रव्यों का ज्ञान हो उसे वर्ण गुण प्रमाण कहते हैं, और वह पंचपिटे पणणात',) पांच प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, ( तं जहा.) जैसे कि - ( कालवगण गुगप्पागणे, ) * भवमं भाषी-चमनः परिणामी ज्ञानादिः वणादिश्च । प्रमीयां अनेन इति प्रमाणाम् । नीतयो नम:- तधर्मात्मयस्य वस्तुन एकांशपरिच्छितयः । । : माणं ..य. प्रमाणाम्। +संख्यानं संख्या सैव प्रमाग संख्याप्रमागम् । +अजीव गगा प्रमाण के विषय में अल्पवक्तव्य होने में प्रथम मी का स्वसमें प्रति. पादन किया जाता है। For Private and Personal Use Only
SR No.020052
Book TitleAnuyogdwar Sutram Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherMurarilalji Charndasji Jain
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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