SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 15
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् ] रजत २, तंब ३, मणि ४, मोत्तिा ५, संक्ख ६, सिलप्पवालाइयाणं ७ दव्वाणं पडिमाणप्पमाणनिव्वत्तिलक्खणं भवइ । सेतं पडिमाणे से तं विभाग निप्फन्ने । से तं दव्वप्पमाणे॥ पदार्थ-(से कि तं पडिमाणे ? जएणं पडिमिणिज्जइ, सं जहा-) पूतिमान किसे कहते हैं ? जिस करके सुवर्ण आदि पदार्थों का मान किया जाता है उसे 'प्रतिमान' कहते हैं जैसे कि-(गुजा) रक्तिका १ ( कागणी ) सपाद गुजा को 'काकणो' कहते हैं २, ( निप्फावो) त्रिभागोन दो गुजाओं के प्रमाण को 'निष्पाव' कहते हैं ३, (कम्ममासो) तीन निष्पावों का एक 'कर्ममाषक' होता है , ( मंडन श्री ) द्वादश कर्ममापकों का एक 'मंडल' होता है ५, ( सुवन्नो ) षोडश कर्म माषकों का एक 'सुवर्ण' होता है अर्थात् षोडश कर्ममाषकों का एक सोनईया होता है ६ । उक्त अर्थो को सूत्र ही विस्तारपूर्वक कहता है जैसे कि--(पंचगुंजायो काममासनो) पांच रक्तिकाओं का एक कर्म मापक होता है अथवा ( चत्तारि कांगरणीनो कम्ममासओ) चार कांकणियों का एक कर्ममापक होता है, (तिरिण निप्फावो कम्ममासो) तोनों निष्पावों का एक कममाषक होता है ( एवं चउको कम्ममासो) इसी प्रकार चार कांकणिओंका एककर्ममाषकहोता है । ऊपर जो तीनों प्रकार से कर्ममाषक का विवरण किया गया है उसमें जिस कर्ममाषक को कहने को वक्ता की इच्छा हो उसे ही ग्रहण करके एक इष्ट कार्य की सिद्धि कर लेता है। इसीलिये अर्थ के भेद न होने से उसे चतुष्क कर्ममाषक' कहते हैं। ( वारसकाममासमो मंडलो) द्वादश कममाषकों का एक 'मंडलक' होता है (एवं अडयालीसाय कांगणिो मंडली ) इसी प्रकार अड़तालीस कांकणियों का भी एक मंडलक होता है (सोलस काममासगो सुवन्नो) षोडश कर्ममाषक का एक सुवर्ण होता है (एपं चउठिए कांगणोनी मुवन्नो ) इसो प्रकार चौंसठ काकणियों का भी एक सुवर्ण हाता है ( एएणं पडिमाणप्पमाणेणं किं पयोयणं ? ) इस प्रतिमान प्रमाण के वर्णन करने का क्या प्रयोजन है ? ( एएणं पडिमाणप्पमाणे ) इस प्रतिमान के द्वारा ( सुवराण ) सुवर्ण ( स्यय ) रजत (तब ) ताम्र ( मणि ) मणि चन्द्रकान्तादि ( मोत्तिय ) मोती ( संक्ख ) संख (सिलप्पवालाइयाणं) शिला-राजपट्टक गंध, प्रवाल आदि ( दव्याण पडिमाणप्पमाणनियत्तिलक्खणं भवइ ) द्रव्यों के प्रतिमान प्रमाण की सिद्धि की लक्ष्यता होती है और यही इसकी सिद्धि का लक्षण होता है ( स तं पाहमा ) इसे ही प्रतिमान प्रमाण कहते हैं (से तं विभागनिष्फन For Private and Personal Use Only
SR No.020052
Book TitleAnuyogdwar Sutram Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherMurarilalji Charndasji Jain
Publication Year
Total Pages329
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy