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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सत्र एकत्रिंशत्तम-अनुयोगद्वार सूत्र चतुर्थ मूल 8885 सरीर दब्बसमोयारे // 5 // से किं तं जाणगसरीर भवियसरीर वइरित्त दव्वसमोआरे ? जाणगसरीर भवियसरीर वइरित्त व्वसमोआरे तिविहे पण्णत्ते तंजहाआयसमोआरे, परसमोआरे, तदुभयसमोआरे // सव्वदव्याविणं आयसमोआरेणं आयभावेलमोअरंति, परसभोआरेणं जहा कुंडे बदराणि, तदुभयसमोआरेणं जहा घरे थंभो आयभावेय, जहा घडे गीवा आयभावेथ // अहवा जाणगसरीर भविय सरीर वइरित्ते दबसमोआरे दुबिहे पण्णत्ते तंजहा-आयसमोआरेय, तदुभययहां ही कहना. यावत् भविय शरीर द्रव्य समवतार तक कहना // 5 // अहो भगवन् ! ज्ञेय शरीर भव्य शरीर व्यतिरिक्त द्रव्य समवतार किसे कहते हैं ? अहो शिष्य ! नेय भव्य शरीर व्यतिरिक्त द्रव्य समवतार के तीन प्रकार कहे हैं तद्यथा-१ आत्म समवतार, 2 पर समवतार, और 3 उभय समवतार इस में आत्म समवतार द्रव्यात्म के समवतार कर विचारता हुवा स्वतः के स्वरूप में समरतो क्यों कि सब जीव Eद्रव्य अपने स्वरूप से अलग नहीं है. ऐसे विचार से अपने 2 स्वरूप में प्रवृत्ति करे उसे आत्म समव तार कहना. 2 अन्य वस्तु में अन्य वस्त प्रवर्ते जैसे कंडे में बोर हैं परंतु बोरों में कंडा नहीं. इस पर एक समवतार कहीये. 3 तदर्भय समवतार-सो जसे घर में स्थम्भ और स्थम्भ पर घर रहा है. इस में स्थम्भ पर घर रहा है यह पर समवतार, स्थम्भ स्वयं स्वत: के स्वरूप में रहा है यह आत्म सावतार, पुनः दोनों के 4-889480 प्रमाण विषय 488488 488 For Private and Personal Use Only
SR No.020050
Book TitleAnuyogdwar Sutram
Original Sutra AuthorN/A
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Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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