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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 488 एकत्रिंशसम-अनुयोगद्वारसूत्र -चतुर्थ मूल 138* तंजहा-धम्मपएसो अधम्मपएसो आगासपएसो जीवपएसो खंधपएसो, एवं वयंत संगहस्म ववहारो भणइ-जं भणसि पंचहं पएसो तं न भवति, कम्हा! जम्हा जइपंचण्हं गोट्ठियाणं पुरिसाणं केइ दव्वजाइ सामन्ने भवति तंजहा। हिरण्णेवा, सुवण्णेवा धणेवा धन्नेवा तहा पंचण्हं पएसो तं मा भणहि पंचण्हं पएसो भणाहि, पंचविहो पएसो तंजहा-धम्मपएसो, अधम्मपएसो, आगास पएसो, जीवपएसो, खंधपएसो. एवं वदंते ववहाररस उज्जुसुतो भणइ,जं भणसि पंचविहो पएसो तं ण सन्देह एक २को उत्पन्न होवे उसे टालने के लिये हमारे मत में धर्म प्रदेश वह प्रदेश धर्म इत्यादि कहा. समभिरूढ मय तुमने तमारा अभिप्राय कहा यह सत्य परंतु यहां समास होने आवे यह संदेह निवृत्तिको कर्म धारय से समास सहित ऐसा कहा धर्म ही वह प्रदेश वह प्रदेश धर्म इत्यादि पांचों बोल-१ एवंभूत नय-धर्मास्ति कायादि पांचों अखंड कहे खंड नाम कहते देश प्रदेश सब खंड वस्तु में आये, या सातों नय के अलग 2 मत कहे. परमार्थ से सब एक ही जानना. इस ही अधिकार को आगे मूत्र द्वारा कहते हैं-नैगम नय कहता है कि छे का प्रदेश-१ धर्मास्ति का प्रदेश, 2 अधर्मास्ति का प्रदेश, 3 आकाशा स्ति का प्रदेश, 4 जीवास्ति का प्रदेश, 5 पुद्गल स्कन्ध का प्रदेश, और 6 देश का प्रदेश. यों बोलते को नैगम से संग्रह कहने लगा कि जो तुम कहते हो छ का प्रदेश तैसा नहीं होता है. क्यों कि नो देश प्रमाण का विषय ! CR>< 498 > / For Private and Personal Use Only
SR No.020050
Book TitleAnuyogdwar Sutram
Original Sutra AuthorN/A
Author
Publisher
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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