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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 4.अनुवादक पाळवमचारी मुनि श्री अमोलक काजी उज्जुसुपस्स आगासपएसे उगाढो तेसु वसति, तिण्हं सहनयाणं आयभावे वसेमि, से तं वसहि दिटुंतेणं // 11 // से किं तं पएसदिटुंतेणं ? पदेस दिटुंते-णेगमो भणति छण्हंपएसो तंजहा-धम्मपएसो, अधम्मपएसो, आगासपएसो,जीवपएसो,खंध पएसो,देसपएसो, एवं वयं गर्भ संगहो भणइ-जं भणसि छण्डंपएसो तं न भवति, कम्हा ? अम्हा देसपएसो सो तस्सेव दव्वस्त जहा को दिटुंतो ? दासण मेखरोकीओ सो यदासोवि मे खरोविमे तेमाभणाहि, छण्हं पएसो भणाहि पचण्हं परसो समझाया, भौर संग्रह नय का या अभिप्राय; थोडे बोल में बहुत का समावेश हुवा इस लिये 7 का परमार्य पांच में आया. 3 व्यवहार नय के मत छ का पांच का यों कहते षष्ठी विभक्ति का बहु वचन उस कर एक प्रदेश संघात को एक पांच का सम्बन्ध समझना, इस लिये पीछे की नय षष्टी तत्पुरुष समास से वह यहां नहीं. 4 ऋजु सूत्र कहता है तुम पांच भेद कहते हो वह सत्य हैं परंतु किसी को संदेह हो कि एकेक प्रदेश वह पांच 2 प्रकार का यों 25 भेद होवे. इस सन्देह की निवृत्ति के लिये ऐसा कहा स्यात् धर्मास्ति का प्रदेश, यों ऋजु सूत्र नय के मत से ऐसा बोले. पांचवा शब्द नयवाला बोला-तुमारा मत सत्य परंतु स्यात् धर्मास्ति का प्रदेश, स्यात् अधर्मास्ति का प्रदेश, यों करते धर्म का जो प्रदेश पर धर्म का प्रदेश और अधर्म का प्रदेश वह धर्म का प्रदेश. यों परस्पर एक भाव का प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसाद For Private and Personal Use Only
SR No.020050
Book TitleAnuyogdwar Sutram
Original Sutra AuthorN/A
Author
Publisher
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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