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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 04 एकत्रिंशत्तम-अनुयोगद्वार मूत्र -चतुर्थ मूल -88.83:. अर्थ जे ते बंधलगा तेणं असंखज्जा असंखेजाहिं उसप्पिणी ओसप्पिणीहि अवहीरती कालओ, खत्राओ असंखेजाओ सेटीओ पयरस्स असंखेजति भागो तामिणं सेढीणं विक्खभ सूई अंगुल पढम वगमलबितिय वग्गमूल पडुपन्न अहवणं अंगुलं वितीय वग्गमूल घणप्पमाण मेत्ताओ सेढीओ,तत्थणं जेते मुक्केलया तंजहा ओहिया ओरालय सरीरा तहा भाणियब्वा आहारग बंधेलगा नत्थि,मुक्कलगा जहा ओरालिया तेयगकम्म सरीरा तंजहा-एतेसिं चेव विउव्विय सरीरा तहा भाणियव्वा // 55 // असुर कुमाराणं भंते केवातिया ओगलिया सरीरा पण्णत्ता? गोयमा ! तंजहा-नेरइयाणं श्रेणि जितन असंख्यात आवे पूर्व से पश्चिम तक लांबी एक अंगल प्रमाण चौडी इतने में जितने असंख्यात आये उतने नरक के वैकेय शरीर हैं, असतकल्पना से 256 श्रेणि. उस का प्रथम वर्ग मूल सोले, क्यों कि 16416-256, इसलिये सोले श्रेणि आई. जस को दूसरा वर्गमूल 4 क्यों कि 444%D16, 164464 श्रेणि असतकल्पना से आर. परंतु परमार्थ से तो असं-100 ख्यात श्रेणि जानना. उस के जितने आकाश प्रदेश उतने नरक के उत्कृष्ट शरीर जानना. और जो मूलक शरीर है वे जैसे औधिक औदारिक शरीर का कहा तसा कहना. नरक में आहारक शरीर बंधेलक तो नहीं हैं और नरक के जीवों ने प्रथम छोडे हुवे आहारक शरीर औदारिक शरीर के जैसे ॐ असंख्यात कहना. नरक के तेजस और कार्माण शरीर का जैसे वैक्रय शरीर का कहा तैसा ही कहना For Private and Personal Use Only
SR No.020050
Book TitleAnuyogdwar Sutram
Original Sutra AuthorN/A
Author
Publisher
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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