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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्र 269 एकत्रिंशत्तम्-अनुयोगद्वार मूत्र-चतुथ मूल -*88%> ઈ तंजहा-बंघेलगाय मुक्केलगाय. तत्थण जे ते बंधेलगा तेणं अणंता, अणंताहिं उसप्पिणी उसप्पिणीहिं अवहीरंती कालओ खेत्तओ अणंता लोगा. हे हिं अणंतगुणा, सव्व जीवाणं अणंतभागूणं, तत्थणं जे ते मुक्कलगा तेणं अणता अणं ताहिं उसीप्पणीहिं उसप्पिणीहिं अवहीरंति कालओ, खे तो अगतालोगा सब्ब जीवहिं अणतगुणा, जीव वग्गरस अणंतभागो // 53 // केवतियाणं भो ! कम्मग सरीरा पत्ता ? प्रकार के कहे हैं. तद्यथा-बंधक और मकेला (तेमस शरीर हटे बांद आत्मा का साथ ही होना है। इस में बंधेलक हैं वे अनन्ते हैं (क्यों कि निगोद के अनन्त जीवों के तेजस शरीर अलग 2 है ) समयमें एकेक हा जयंती दिमागले अकम अधिक क्यों कि सिद्ध से अनंत गन अधिक निगोद के जीवों सब तेजस शीर के धारक है. और सब जीवों के अनंतवे भाग हीन. क्यों कि सब जीवों में सिद्ध के जीव भी समागये. इस लिये जितने सिद्ध हुवे उतने तेजप्स शरीर कमी होगये. और जो सुकेलक तेजस शरीर हैं वे अनंत हैं. समय 2 में एकेक हरण करते अनंत उत्सर्पिणी वसर्पिणी व्यतिक्रान्त होजाये. यह काल से और क्षेत्र से अनन्त लोकाकाश प्रदेश नितने, सब जीवों से अनंतमुने अधिक, और जीव वर्ग के असंलो भाग, अर्थात् जितने सब जीवों उन को उतने का करना. उसमें का एक भाग कमी करना .सिद्ध का] इतने 48418 प्रमाण कायय 888 | Age For Private and Personal Use Only
SR No.020050
Book TitleAnuyogdwar Sutram
Original Sutra AuthorN/A
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Publisher
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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