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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir * अर्थ 4880 एकत्रिंशत्तम-अनुयोगद्वार गुप-चतुर्ध मूस-887 पलिओवमे से जहा जामए पल्लेसिया जोयण आयम विक्खंभेणं जाव परिखे वेणं सेणं पल्ले एगाहिय बेयाहिय तेयाहिय जाव अरिते वालग्ग कोडीणं. तत्थणं एगमेग वालगा असंवेज्जाइ खंडाई कजति तेणं बरग दिट्ठीणं उगाहणाओ असंखेति भागमता सुहम पणगजीवरस संरीरोगहणाआ असंखेजगुणा, तेणं वालग्ग णोअग्गिड. हेजा जाव नो पूइत्ताए हव्व मागच्छेज्जा, ते णं तस्स पलरस आगास देसा तेहिं वालग्गेहिं अपन्नावा अगपुनावा तत्तोणं समए 2 एगमेगं आगासपएसं अबहाथ,जाय ईएणं कालेणं से पल्ले वीणे जाव णिति भवती, से तं सुहुमे खत्त पलिगोवमेतत्थणं चायए पण्णवहां एवं शिष्य ! सूक्ष्म व्यवहार पल्योपम सो यथा दृष्टांत-उक्त प्रकार से ही पाला एक योजन का लम्बा एक योजन का चौडा गोलाकार और एक योजन का झंडा उस पाले को एक दिन के दो दिन के तीन दिन के यावत् सात दिन जन्मे बच्चे के बालाग्र उन एक चालान के असंख्यात. खण्ड कर वे एमे सक्ष्म खण्ड करे कि दृष्टी से देखावे नहीं. क्यों दि. उन के असंख्यात भाग हुवे हैं वह एक खण्ड सूक्ष्म फूलन के जीवों की शरीर की अवगाना से महाराज ने आरेक बडे आनना, ऐसे बालाग्र कर उस पाले को ठसाठस भरे ऐसा परे की वे आपसे जले नही वायु से नहीं पानी से गले नहीं उन बालाग्र को स्पर्श हुवे अथवा नहीं भी स्पर्श हुबे अर्थात् उस पाला में के सब आकाश प्रदेश क्षेत्र पल्य के दृष्टीवाद के द्रव्य वालाग्र को स्पर्श जो प्रदेश तैसे ही कितनेक द्रव्य बालाग्र विना स्पी। प्रमाण का विषय 80- 800 For Private and Personal Use Only
SR No.020050
Book TitleAnuyogdwar Sutram
Original Sutra AuthorN/A
Author
Publisher
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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